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नवंबर, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोहाज़िर

राजीव रंजन देस बनाना चाहा था परदेस को देस छूट गया और परदेस परदेस ही रहा. बंट गया हूँ कई हिस्सों में. जिस्म लोटता है लहुलूहान होता है परदेस की मिटटी में. रूह भटकती है ठिकाना खोजती है देस की माटी में. वर्षों बीत जाते हैं परदेस को अपना बनाते पर हाथ लगता है सिर्फ एक मुश्त-ए-गुबार. एक मुद्दत के बाद देस भी बेगाना हो जाता है. तनहाइयों के सफर में भटकने वाले मुसाफिर यादों के मोहाज़िर होते हैं.

शून्य

राजीव रंजन जाड़े की सर्द हवा दरवाजों पर दस्तक देती है ऐसे जैसे कोई हलके हाथों से दरवाजा खटखटा रहा हो उठता हूँ सिगरेट की राख झाडते हुए दरवाजा खोलता हूँ लेकिन कुछ भी दिखाई नहीं देता हवा भी नहीं सिर्फ महसूस होती है उसकी चुभन और दिखता है केवल सिगरेट का खाली धुआं. फिर मैं झाड़ देता हूँ सिगरेट की बची राख.

एक बुल्गारियन कविता

एक पेड़ था जिस पर सूरज रहा करता था वो कुल्हाडे से काट दिया गया और उसका का कागज़ बना लिया गया अब उसी कागज़ पर मैं उस पेड़ की गाथा लिख रही हूँ जिस पर कभी सूरज का कयाम था... (बुल्गारियन शायरा ब्लागा दिमित्रोवा की नज्म )

हजारी प्रसाद द्विवेदी की कुछ पंक्तियाँ

एकांत का तप बड़ा तप नहीं है. संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है. लोग दुख से व्याकुल हैं. उनमें जाना चाहिए. उनके दुख का भागी बनकर उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए. यही वास्तविक तप है. जिसे यह सत्य प्रकट हो गया कि सर्वत्र एक ही आत्मा विद्यमान है, वह दुख-कष्ट से जर्जर मानवता की कैसे उपेक्षा कर सकता है. (" अनामदास का पोथा" उपन्यास का अंश)

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता

तुम्हारे साथ रह कर अक्सर मुझे लगा है कि हम असमर्थताओं से नहीं संभावनाओं से घिरे हैं हर दीवार में एक द्वार बन सकता है और हर द्वार से एक पूरा का पूरा पहाड़ गुज़र सकता है शक्ति अगर सीमित है तो हर चीज़ अशक्त भी है भुजाएं अगर छोटी हैं तो सागर भी सिमटा है सामर्थ्य इच्छा का केवल दूसरा नाम है जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है वह नियति की नहीं मेरी है.

कीमत

राजीव रंजन सुबह-सुबह खपरे की दरारों से घुस आती थी सूरज की किरणें रात को छन कर गिरती थी चांदनी इन्हीं दरारों से लेट कर ताकता रहता था इन्हीं दरारों को सूरज मुझे जगाता था चांदनी सुलाती थी मगर अब यह सब गुज़रे वक़्त की बात है बंद हो गई हैं दरारें राजधानी के कमरे में ईंट, गिट्टी और सरिये से नींद खुलती है अब घड़ी के अलार्म से आंख लगते-लगते बीत जाता है रात का तीसरा पहर महत्वाकांक्षाओं की कीमत चुकानी पडी है सूरज, चांदनी और नींद से

जवाब

राजीव रंजन एक ही सवाल कई बार मैंने कई तरह से पूछा इस उम्मीद में कि शायद जवाब कुछ अलग मिले मगर, हर बार अलग-अलग तरीकों से वही जवाब आया मैंने सवाल बदल दिया पर, जवाब वही रहा दरअसल, जवाब सवालों पर नहीं, जवाब देने वालों पर निर्भर करते है।

कुमार विनोद की कुछ कवितायें

बच्चा - एक बच्चा सच्ची बात लिखेगा जीवन है सौगात, लिखेगा जब वो अपनी पर आएगा मरुथल मे बरसात लिखेगा उसकी आंखों मे जुगनू है सारी-सारी रात लिखेगा नन्हें हाथों को लिखने दो बदलेंगे हालात, लिखेगा उसके सहने की सीमा है मत भूलो, प्रतिघात लिखेगा बिना प्यार की खुशबू वाली रोटी को खैरात लिखेगा जा उसके सीने से लग जावो तेरे जज्बात लिखेगा बच्चा - २ सब आंखों का तारा बच्चा सूरज चाँद सितारा बच्चा सूरदास की लकुटि-कमरिया मीरा का इकतारा बच्चा कल-कल करता हर पल बहता दरिया की जलधारा बच्चा जग से जीत भले न पाए खुद से कब है हारा बच्चा जब भी मुश्किल वक्त पड़ेगा देगा हमे सहारा बच्चा गूंगे जब सच बोलेंगे सब सिंहासन डोलेंगे गूंगे जब सच बोलेंगे सूरज को भी छू लेंगे पंछी जब पर तोलेंगे अब के माँ से मिलते ही आँचल मे छिप रो लेंगे कल छुट्टी है, अच्छा है बच्चे जी भर सो लेंगे हमने उड़ना सीख लिया नये आसमां खोलेंगे आदमी तनहा हुआ हर तरफ है भीड़ फिर भी आदमी तनहा हुआ गुमशुदा का एक विज्ञापन-सा हर चेहरा हुआ सैल घड़ी का दर हकीकत कुछ दिनो से ख़त्म था और मैं नादां ये समझा वक्त है ठहरा हुआ चेहरों पे मुस्कान जैसे पानी का हो बुलबुला पर दिलों म

अच्छी कविता कभी खत्म नहीं होती

एक दिन ऑफिस में एक फोन आया. उधर से कुमार विनोद नाम के सज्जन बोल रहे थे. उन्होने याद दिलाया कि "मैंने अपना एक कविता संकलन जुलाई महीने में समीक्षार्थ भेजा था." मैंने कहा कि मुझे जानकारी नही नहीं है, मैं देख कर आपको सूचित करूँगा. अगले दिन उनका फोन फिर आया, तब तक मैंने किताब देखि नही थी, लेकिन दुबारा फोन आने के बाद मैंने शिष्टाचार के नाते सोचा कि देख ही लेना चाहिए. अगर कवितायें ठीकठाक हुईं तो छाप देंगे समीक्षा. वैसे भी कई बार हम ऐसी किताबों की समीक्षाये छापने को मजबूर होते है जो उस लायक नही होती, मगर उसके रचनाकारों के संबंध "ऊपर" के लोगो से होते हैं. मैंने यूं ही "कविता खत्म नही होती" (संकलन का यही नाम है) पर एक नज़र डाली और जो एक बार नज़र डाली तो फिर बिना रुके पढ़ता चला गया, साथ ही एक अपराधबोध से भी ग्रस्त होता चला गया. मुझे लगा कई बार इसी तरह कई अच्छी रचनाएं उपेक्षित रह जाती होंगी क्योंकि उनके साथ किसी बडे रचनाकार का नाम नहीं जुडा होता है, वे किसी बडे प्रकाशन से नही छपती, उनके रचनाकारों के संबंध "बडे" या "ऊपर" के लोगों से नहीं होते या फि