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दरमियाँ

मख्मूर सईदी कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियाँ घर कहीं गुम हो गया है दीवारो-दर के दरमियाँ एक साअत थी कि सदियों तक सफर करती रही कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम सहते रहें है यही रिश्ता पुराना संग-ओ-सर के दरमियाँ किसकी आहट पर अंधेरों के कदम बढ़ते गए? रहनुमा था कौन इस अंधे सफर के दरमियाँ बस्तियां 'मख्मूर' यूं उजड़ी कि सहरा हो गईं फासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ साअत- क्षण संगो-सर- पत्थर और सर

मख्मूर सईदी की शायरी

चल पड़े सुन ली सदा-ए-कोहे-निदा और चल पड़े हमने किसी से कुछ न कहा और चल पड़े ठहरी हुई फिजा में उलझने लगा था दम हमने हवा का गीत सुना और चल पड़े तारीक रास्तों का सफर सहल था हमें रोशन किया लहू का दिया और चल पड़े घर में रहा था कौन कि रुखसत करे हमें चौखट को अलविदा कहा और चल पड़े 'मख्मूर' वापसी का इरादा न था मगर घर को खुला ही छोड़ दिया और चल पड़े सदा-ए-कोहे-निदा- पर्वत के बुलाने की आवाज़ तारीक- अंधकारमय सहल- आसान