कुछ रीत जगत की ऐसी है, हर एक सुबह की शाम हुई

राजीव रंजन बात बहुत पहले की है। सन् 1985, 86 या 87 या इसके आसपास का कोई समय। पक्का याद नहीं। उम्र यही कोई 10 या 12 साल की, तब फिल्मों से ताल्लुक बढ़ने लगा था। तब जमाना अमिताभ बच्चन का था। राजेश खन्ना का रुतबा काफी पहले ढल चुका था और अमिताभ का एकच्छत्र राज था। कभी-कभार बड़ो से, खासकर पिताजी से राजेश खन्ना के बारे में सुनने को मिलता था। उनके स्टारडम के बारे में, उनके एटिट्युड के बारे में। अमिताभ से प्रतिद्वंद्विता के बारे में। जमाना अमिताभ का था और हमारे लिए हीरो का मतलब था अमिताभ बच्चन। यही वजह थी कि राजेश खन्ना के प्रति मन से नफरत टाइप-सी होने लगी। उनका समय भी ढल गया था, फिल्में भी ऐसी कोई देखी नहीं थी उनकी, जिनमें वो अपने पूरे शवाब पर हों। जो देखी थीं, वे सब साधारण-सी, जिनमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जो एक बड़े होते बच्चे को लुभा सके। हालांकि पापा कहते थे कि बहुत अच्छे एक्टर थे वो, पर हम नहीं मानते थे। कुछ साल गुजर गए। हमारे घर टीवी आ गया था। ‘आनंद’ देखी, अभिभुत हो गया। राजेश खन्ना से, अमिताभ से तो पहले से ही था। फिर ‘नमक हराम’ देखने का मौका मिला, राजेश खन्ना दिल में बस ग...