मां

राजीव रंजन
जब भी थका हारा और टूटा हूं
कभी अपने आप से लड़ते-लड़ते
कभी दुनिया से लड़ते-लड़ते
कभी अपनाकर ठुकराए जाने पर
इसी शब्द ने सहारा दिया है
मां
तुम वर्णन से परे हो।
जब कभी सपने देखते-देखते
डर कर जागा हूं नींद से,
अपने आपको असहाय पाया है
जब जीवन का बोझ उठाने में
एक भी कदम संभल कर चल पाने में
तुम्ही ने मुझको सहारा दिया है
मुझको टूटने से बचाया है
मां
तुम वर्णन से परे हो।
तुम्हे याद नहीं करता मैं ऐसे
जब अकेला पाता हूं अपने को
इस दम घोंट देने वाली भीड़ में
तब यही रिश्ता याद आता है
तब यही एकमात्र सहारा बन कर आता है
मां
तुम वर्णन से परे हो।
और अंत में,
कुपुत्रो जायेत्
क्वचिदपि कुमाता न भवति- शंकराचार्य के क्षमास्तोत्रं से
(पुत्र, कुपुत्र हो सकता है, लेकिन माता, कभी कुमाता नहीं होती)
टिप्पणियाँ
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तुम वर्णन से परे हो।
.... बहुत सुन्दर ... अदभुत !!!
नमस्कार !
आपने बहुत भावपूर्ण रचना लिखी है -
तुम्हे याद नहीं करता मैं ऐसे …
सच है , मां को याद करना नहीं पड़ता , क्योंकि मां हमारी सांसों में बसी होती है , ईश्वर की तरह
मां
तुम वर्णन से परे हो।
आपकी भावनाओं में सहभागिता स्वरूप सादर समर्पित है मेरे एक गीत की पंक्तियां -
तेरा जीवन - चरित निहार' स्वर्ग से पुष्प बरसते हैं मां !
तुम- सा क़द - पद पाने को स्वयं भगवान तरसते हैं मां !
चरण कमल छू'कर मां ! तेरे , धन्य स्वयं होते भगवान !
धन्य तुम्हारा जीवन है मां ! स्वत्व मेरा तुम पर बलिदान !!
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार