हर जर्रा चमकता है अनवारे इलाही से।
हर सांस ये कहती है हम हैं तो खुदा भी है।।
उसकी याद आती रही
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राजीव रंजन
याद नहीं करता उसे
फिर भी याद आ जाता है
मैं तो समझा था
किताब में लिखा सबक है बस
याद करने पे ही याद आएगा
वो तो ज़िन्दगी की किताब निकला।
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टिप्पणियाँ
बेनामी ने कहा…
mai yad nahi karti fir bhi yaad aa jata hai har mod p na jane kyo takra jata hai mujhe wo aapne hone ka ehsas dil jata hai mai yaad nahi karti fir bhi yaad aa jata hai
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' वर दे वीणा-वादिनी वर दे। प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे। काट अंध उर के बंधन स्तर बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर कलुष भेद तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे। वर दे वीणा-वादिनी वर दे... नव गति नव लय ताल-छंद नव नवल कंठ नव जलद मंद्र रव नव नभ के नव विहग वृंद को नव पर नव स्वर दे। वर दे वीणा-वादिनी वर दे...
राजीव रंजन भारत में हिन्दी के उत्थान के लिए जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उनमें सेठ गोविन्द दास का नाम अनन्य है। उन्होंने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी हिन्दी के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया। यहां तक कि हिन्दी के सवाल पर वह अपनी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की नीति से अलग जाकर संसद में हिंदी का जोरदार समर्थन किया। वह भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी के जबरदस्त समर्थक थे। ‘महाकौशल केसरी’ गोविंद दास साहित्यकार के साथ-साथ सफल राजनेता भी थे। वह 1923 में केंद्रीय सभा के लिए चुने गए। साथ ही 1947 से 1974 तक, जब तक जीवित रहे, कांग्रेस के टिकट पर जबलपुर के सांसद भी रहे। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें 1961 में भारत के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था। सेठ गोविन्द दास का जन्म जबलपुर के बहुत समृद्ध माहेश्वरी परिवार में सेठ जीवनदास के पुत्र के रूप में 16 अक्टूबर, 1896 को हुआ था। इनके दादा सेठ गोकुल दास ने अपने पारिवारिक कारोबार को बहुत ऊंचाई पर पहुंचाया, इसीलिए उन्हें राजा गोकुल दास भी कहा जाता था। गोविन्द दास की प्रारम्भ...
वसीयत वसीयत क्या करूं आखिर न जाने मौत किस आलम आयेगी किसे मालूम वो मुख्तार (स्वच्छंद) या मजबूर आयेगी किसे मालूम हंसती-खेलती आयेगी या जख्मों से बिल्कुल चूर आयेगी वतन में- या वतन से दूर आयेगी वसीयत क्या करूं- किससे करूं आखिर बहुत मुमकिन है जिसके हाथ में ये दास्तां आये वो मेरी इस जुबां ही से वाकिफ न हो! तो फिर आखिर वसीयत क्या करूं-किससे करूं आखिर सुना है मौत का एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है-तो फिर होगा किसे परवा ... और ये दुनिया- ड्राइंगरूमों, कहवाखानों और बेजान मयखानों की ये दुनिया मुझे बिल्कुल भूला ही दे तो अच्छा है कि मेरी दास्तां में न जाने कितनी बार उसका नाम आयेगा कि मुझको और मेरे फन को डंसा है इन पुरानी नागिनों ने कहवाखानों और ड्राइंगरूमों की इन सालखुर्दा (वयोवृद्ध) नागिनों ने रूप में इन्सान के आकर मेरा फन मर गया, यारो मैं नीला पड़ गया यारो मुझे ले जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना वो मेरी मां है वो मेरे बदन का जहर पी लेगी हजारों बार मुझको खो चुकी है वो मुझे खोकर वो फिर इक बार जी लेगी वो मेरी मां है वो मेरे बदन का जहर पी लेगी मगर शायद वतन से दूर मौत आये बहुत ही ...
टिप्पणियाँ
har mod p na jane kyo takra jata hai
mujhe wo aapne hone ka ehsas dil jata hai
mai yaad nahi karti
fir bhi yaad aa jata hai