जय हो छठी मैया। जय हो सुरुज देव।
राजीव रंजन
जय हो छठी मैया। जय हो सुरुज देव।
दुनिया भर के सभी त्योहार लोक पर्व होते हैं, क्योंकि बिना लोक के धर्म की रक्षा नहीं हो सकती और बिना धर्म के लोक भी रक्षित नहीं हो सकता। हमारे यहां कहा भी गया है- ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’ तो हर पर्व में शास्त्र के अनुशासन के साथ लोक तत्त्व भी सहज स्वाभाविक रूप से घुला होता है। लोक को धर्म से और धर्म को लोक से अलग नहीं किया जा सकता। शास्त्र सम्मत पर्वों में भी हर युग अपनी अनुकूलताओं का तत्त्व जोड़ कर पर्व को युगानुकूल और युग को धर्मानुकूल बना लेता है।
छठ भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन इसे हम पुरबिया लोग
बिना पुरोहित के संपन्न किए जाने वाले गिने-चुने पर्व हमारे यहां है। छठ उनमें सबसे बड़ा पर्व है। छठ के गीत ही इस पूजा के जीवंत मंत्र हैं। इन गीतों में भगवान सूर्य, छठी मैया के प्रति अटूट श्रद्धा और मानवीय करुणा का अद्भुत मेल है। ‘केरवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेंड़राए। मरबो रे सुगवा धनुख से, सुगा गिरे मुरझाए। सुगनी से जे रोयेली वियोग से, आदित होई न सहाय।’ भगवान सूर्य और छठी मैया के प्रति व्रती की श्रद्धा इतनी उत्कट है कि उससे सुग्गे (तोता) का केले के घवद पर मंडराना भी सहन नहीं होता, क्योंकि उस केले से सूर्य भगवान को अघ्र्य देना है। वह धनुष से सुग्गे को मारने को कामना करती है। लेकिन इस कृत्य के बाद वह सुगनी के वियोग से व्याकुल हो उठती है और आदित (आदित्य) से सहाय होने की गुहार लगाती है। यहां भी करुणा की जय होती है। ऐसी श्रद्धा, ऐसी करुणा, ऐसी पुकार छठ के गीतों में प्रचुरता से है, जिसमें अपने परिवार के साथ-साथ विश्व के कल्याण की कामना है, इसलिए छठ ‘लोक आस्था का महापर्व’ है।
दुनिया में प्रत्यक्ष दो ही देवता माने गए हैं- अग्नि और सूर्य। सूर्य को वैदिक ऋषियों ने जगत की आत्मा कहा है। जगत के आधार इन्हीं सूर्य देव की ओर मुख करके, अंजुरी में जल भर अखंड विश्वास के साथ सामूहिक रूप से कृतज्ञता प्रकट करने का ‘लोक आस्था का महापर्व’ है छठ।
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