दिल्ली की दुनिया में एक दूसरी दुनिया- छंगपुरा

ये छोटा सा राइट अप बहुत पहले लिखा था। चार सालों से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है इसे लिखे। तब इस कॉलोनी में काफी आना-जाना होता था। बेरोजगारी के दिन थे। यहां जाने से वक्त भी कट जाता था और हौसला भी मिलता था कि कम से कम मैं निर्वासन तो नहीं झेल रहा। इस बस्ती के लोग दुख में भी उम्मीद के साथ जी रहे थे। साम्राज्यवादी चीन के शिकंजे से तिब्बत की आजादी के संघर्ष और सपने के साथ।
राजीव रंजन
न्यू अरुणा नगर कॉलोनी उर्फ छंगपुरा। पुरानी दिल्ली इलाके के तीमारपुर में बसी तिब्बती शरणार्थियों की एक बस्ती। आमतौर पर लोग इसे छंग बनाने और बेचने की एक जगह के रूप में जानते हैं। छंग यानी चावल से बनाई जाने वाली तिब्बती शराब। कीमत कम और नशा बढि़या। लेकिन, शायद कम ही लोग ही जानते हैं कि छंग बेचकर अपना गुजारा करने वाले लोग किस दु:ख में जी रहे हैं और किस उम्मीद में जिंदा हैं। यहां आकर नशे में डूबीं आंखें शायद नशा परोसने वालों की आंखों के सुनेपन को नहीं जान पातीं। नशे में डूबीं आंखें ये नहीं जान पातीं कि देश से निवार्सित होकर परदेस में जीने की पीड़ा क्या होती है ? या फिर परदेस में ही मर जाने का दर्द क्या होता है ? बकौल जफर- “दफ्न के लिए दो गज जमीन भी न मिली कुए यार में।”
छंग में डूबी मदमस्त आंखों को ऊपर-ऊपर सबकुछ ठीक दिखता है, चलता दिखता है। जीवन अपनी गति से चलता दिखता है, मगर इस बस्ती के भीतर एक दूसरी दुनिया भी बसती है, जहां दु:ख है, उदसीनता है, आशा है, उम्मीद है, इसलिए जीवन भी है, ये सब नहीं दिखता। शायद हम भूल जाते हैं या फिर यूं कहें कि छंग का मीठा नशा हमें भूलने के लिए विवश कर देता है कि-
“पेड़ की टहनियों पर चहकने वाले पंछी हमेशा हर्षगान नहीं किया करते, बल्कि उनकी चहचहाहट में पीड़ा भी छिपी होती है, विषाद भी छिपा होता है।”