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निराला जी की कविता

बांधो न नाव इस ठांव बन्धु पूछेगा सारा गांव बन्धु यह घाट वही जिस पर हंस कर वह नहाती थी कभी धंस कर आँखें रह जाती थीं फंस कर कांपते थे दोनों पांव बन्धु बांधो न नाव इस ठांव बन्धु पूछेगा सारा गांव बन्धु वह हंसी बहुत कुछ कहती थी फिर भी अपने में रहती थी सबकी सुनती थी सहती थी देती थी सबमे दांव बन्धु बांधो न नाव इस ठांव बन्धु पूछेगा सारा गांव बन्धु