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साहिर लुधियानवी की नज्‍म 'कल और आज'

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आज भी बूंदें बरसेंगी आज भी बादल छाये हैं और कवि इस सोच में है बस्‍ती पे बादल छाये हैं, पर ये बस्‍ती किसकी है धरती पर अमृत बरसेगा, लेकिन धरती किसकी है हल जोतेगी खेतों में अल्‍हड़ टोली दहकाओं (किसानों) की धरती से फुटेगी मेहनत फाकाकश इंसानों की फसलें काट के मेहनतकश गल्‍ले के ढेर लगाएंगे जागीरों के मालिक आकर सब पूंजी ले जाएंगे बुढ़े दहकाओं के घर बनिये की कुर्की आएगी और कर्जे के सूद में कोई गोरी बेची जाएगी आज भी जनता भूखी है और कल भी जनता तरसी थी आज भी रिमझिम बरखा होगी कल भी बारिश बरसी थी आज भी बादल छाये हैं आज भी बूंदें बरसेंगी और कवि सोच रहा है... (साहिर लुधियानवी)

डॉ. राही मासूम रजा की कविता ''मरसिया''

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मरसिया एक चुटकी नींद की मिलती नहीं अपने जख्‍मों पर छिड़कने के लिए हाय हम किस शहर में मारे गए। घंटियां बजती हैं जीने पर कदम की चाप है फिर कोई बेचेहरा होगा मुंह में होगी जिसके मक्‍खन की जुबां सीने में जिसके होगा एक पत्‍थर का दिल मुस्‍करा कर मेरे दिल का एक वरक ले जाएगा हाय हम किस शहर में मारे गए।

राही मासूम रजा की कविता 'वसीयत'

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वसीयत वसीयत क्‍या करूं आखिर न जाने मौत किस आलम आयेगी किसे मालूम वो मुख्‍तार (स्‍वच्‍छंद) या मजबूर आयेगी किसे मालूम हंसती-खेलती आयेगी या जख्‍मों से बिल्‍कुल चूर आयेगी वतन में- या वतन से दूर आयेगी वसीयत क्‍या करूं- किससे करूं आखिर बहुत मुमकिन है जिसके हाथ में ये दास्‍तां आये वो मेरी इस जुबां ही से वा‍किफ न हो! तो फिर आखिर वसीयत क्‍या करूं-किससे करूं आखिर सुना है मौत का एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है-तो फिर होगा किसे परवा ... और ये दुनिया- ड्राइंगरूमों, कहवाखानों और बेजान मयखानों की ये दुनिया मुझे बिल्‍कुल भूला ही दे तो अच्‍छा है कि मेरी दास्‍तां में न जाने कितनी बार उसका नाम आयेगा कि मुझको और मेरे फन को डंसा है इन पुरानी नागिनों ने कहवाखानों और ड्राइंगरूमों की इन सालखुर्दा (वयोवृद्ध) नागिनों ने रूप में इन्‍सान के आकर मेरा फन मर गया, यारो मैं नीला पड़ गया यारो मुझे ले जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना वो मेरी मां है वो मेरे बदन का जहर पी लेगी हजारों बार मुझको खो चुकी है वो मुझे खोकर वो फिर इक बार जी लेगी वो मेरी मां है वो मेरे बदन का जहर पी लेगी मगर शायद वतन से दूर मौत आये बहुत ही

If you call me

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Sarojini Naidu If you call me, I will come Swifter, O my love Than a trembling forest deer Or, a panting dove. Swifter than a snake that flies To the charmers thrall… If you call me, I will come Fearless what befall. If you call me, I will come Swifter than desire Swifter than the lightning’s feet Shed with plumes of fire Life’s dark tides may roll between Or, death’s deep charms divide If you call me, I will come.

Caprice

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Sarojani Naidu You held a wild flower in your finger tips Idly you pressed it into indifferent lips Idly you tore its crimson leaves apart… Alas! It was my heart. You held a wine cup in your finger tips Lightly you raised it to indifferent lips Lightly you drunk and flung away the bowl… Alas! It was my soul.

अनुभूति

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राजीव रंजन तुमको, छूआ नहीं जा सकता देखा नहीं जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है क्‍योंकि तुम तो अनुभूति मात्र हो. तुमको, पाकर भी साथ निभाया नहीं जा सकता क्‍योंकि तुम तो रेत की तरह हो, जो मुट्ठियों से फिसल जाती है और पैरों तले से सरक जाती है.

गुजरे दिन कभी गुजरे नहीं

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राजीव रंजन गुजरे दिन कभी गुजरे नहीं हालात जो थे सुधरे नहीं. पिरो कर रखता हूं सीने में यादों के मोती बिखरे नहीं. ताउम्र चलते रहे यूं ही थक गए, मगर ठहरे नहीं. सच को हर कदम पर कैद है झूठ पर कोई पहरे नहीं. सब कुछ है धुंधला-धुंधला सा पहचाने से कोई चेहरे नहीं.

पत्रकारिता हमारी ढाल है और साहित्‍य आड़

राजीव रंजन हमें गुमान है कि हम लोकतंत्र के चौथे खंभे की ईंट और गारे हैं. हमें यह भी गुमान है कि हम लोगों की आवाज हैं ये बात और है कि हमारी ही आवाज बेमौत मर जाती है या यूं कहें, हम ही खुद घोट देते हैं उसका गला. हम सिर्फ नौकरी करते हैं हमारी एकमात्र चिंता है नौकरी बची रहे चाहे कुछ और बचे न बचे. जब हम पर कोई सवाल उठाता है हम उछाल देते हैं उस पर ही कई सवाल. हम पापी पेट की दुहाई देकर न जाने कितने पाप चुपचाप देखते रहते हैं. हम पापी पेट के नाम पर हर रोज न जाने कितने पाप करते रहते हैं और इन सारे ‘पापबोधों’ से मुक्‍त होने के लिए कविता लिख देते हैं. पत्रकारिता हमारी ढाल है साहित्‍य हमारी आड़। (28/12/2006)

बदलते मौसम की उदासी!

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राजीव रंजन इस दो दरवाजे वाले किराये के कमरे में हर चीज अपनी जगह से है कुछ तरतीब से रखी हुई और कुछ बेतरतीब सी करीने से तह करके टीन के बक्‍से में रखे कपड़े रेक पर सजी हुईं किताबें बिस्‍तर पर बिखरे धुले हुए कपड़े फैले अखबार रिसाले और किताबें छत से लटकता हुआ पंखा सन्‍नाटे को तोड़ता हुआ सन्‍नाटे को बढ़ाता हुआ याद आती शरद ऋतु में जेठ में बजती गांव की खामोशी यह बदलते मौसम की उदासी है या दिल ही है कुछ खोया-खोया सा। (3/10/2006)

दिल्‍ली की दुनिया में एक दूसरी दुनिया- छंगपुरा

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ये छोटा सा राइट अप बहुत पहले लिखा था। चार सालों से ज्‍यादा का वक्‍त गुजर चुका है इसे लिखे। तब इस कॉलोनी में काफी आना-जाना होता था। बेरोजगारी के दिन थे। यहां जाने से वक्‍त भी कट जाता था और हौसला भी मिलता था कि कम से कम मैं निर्वासन तो नहीं झेल रहा। इस बस्‍ती के लोग दुख में भी उम्‍मीद के साथ जी रहे थे। साम्राज्‍यवादी चीन के शिकंजे से तिब्‍बत की आजादी के संघर्ष और सपने के साथ। राजीव रंजन न्‍यू अरुणा नगर कॉलोनी उर्फ छंगपुरा। पुरानी दिल्‍ली इलाके के तीमारपुर में बसी तिब्‍बती शरणार्थियों की एक बस्‍ती। आमतौर पर लोग इसे छंग बनाने और बेचने की एक जगह के रूप में जानते हैं। छंग यानी चावल से बनाई जाने वाली तिब्‍बती शराब। कीमत कम और नशा बढि़या। लेकिन, शायद कम ही लोग ही जानते हैं कि छंग बेचकर अपना गुजारा करने वाले लोग किस दु:ख में जी रहे हैं और किस उम्‍मीद में जिंदा हैं। यहां आकर नशे में डूबीं आंखें शायद नशा परोसने वालों की आंखों के सुनेपन को नहीं जान पातीं। नशे में डूबीं आंखें ये नहीं जान पातीं कि देश से निवार्सित होकर परदेस में जीने की पीड़ा क्‍या होती है ? या फिर परदेस में ही मर जाने का दर्द

मुक्तिबोध की कविता

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घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती, जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला, वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला “ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर” क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर? इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर, सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’

... इसलिए उदास हो जाता हूं

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राजीव रंजन कई बार उदास हो जाने को जी चाहता है कई बार उदासी बड़ी अच्‍छी लगती है कई बार दिन भर की चहल-पहल से उब कर जीने की जद्दोजहद में घर से ऑफिस और ऑफिस से घर तक के सफर से थक जाने के बाद बत्तियां बुझाकर चुपचाप लेट जाना अतीत की राहों पर चलना गुजरे लम्‍हों को फिर से गुनना और बीते वक्‍त को जी कर उदास हो जाना अच्‍छा लगता है जिंदगी का हासिल खुशी ही नहीं है कभी-कभी उदासी भी आदमी को जिंदा कर देती है। इसलिए कई बार उदास हो जाता हूं।

वीणा-वादिनी वर दे

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सूर्यकान्‍त त्रिपाठी 'निराला' वर दे वीणा-वादिनी वर दे। प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे। काट अंध उर के बंधन स्तर बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर कलुष भेद तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे। वर दे वीणा-वादिनी वर दे... नव गति नव लय ताल-छंद नव नवल कंठ नव जलद मंद्र रव नव नभ के नव विहग वृंद को नव पर नव स्वर दे। वर दे वीणा-वादिनी वर दे...