साहिर लुधियानवी की नज्म 'कल और आज'
आज भी बूंदें बरसेंगी
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है
बस्ती पे बादल छाये हैं, पर ये बस्ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा, लेकिन धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्हड़ टोली दहकाओं (किसानों) की
धरती से फुटेगी मेहनत फाकाकश इंसानों की
फसलें काट के मेहनतकश गल्ले के ढेर लगाएंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूंजी ले जाएंगे
बुढ़े दहकाओं के घर बनिये की कुर्की आएगी
और कर्जे के सूद में कोई गोरी बेची जाएगी
आज भी जनता भूखी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिमझिम बरखा होगी
कल भी बारिश बरसी थी
आज भी बादल छाये हैं
आज भी बूंदें बरसेंगी
और कवि सोच रहा है...
(साहिर लुधियानवी)