डॉ. राही मासूम रजा की कविता ''मरसिया''
मरसिया
एक चुटकी नींद की मिलती नहीं
अपने जख्मों पर छिड़कने के लिए
हाय हम किस शहर में मारे गए।
घंटियां बजती हैं
जीने पर कदम की चाप है
फिर कोई बेचेहरा होगा
मुंह में होगी जिसके मक्खन की जुबां
सीने में जिसके होगा एक पत्थर का दिल
मुस्करा कर मेरे दिल का एक वरक ले जाएगा
हाय हम किस शहर में मारे गए।