राही मासूम रजा की कविता 'वसीयत'
वसीयत
वसीयत क्या करूं आखिर
न जाने मौत किस आलम आयेगी
किसे मालूम वो मुख्तार (स्वच्छंद) या मजबूर आयेगी
किसे मालूम हंसती-खेलती आयेगी
या जख्मों से बिल्कुल चूर आयेगी
वतन में- या वतन से दूर आयेगी
वसीयत क्या करूं- किससे करूं आखिर
बहुत मुमकिन है जिसके हाथ में ये दास्तां आये
वो मेरी इस जुबां ही से वाकिफ न हो!
तो फिर आखिर वसीयत क्या करूं-किससे करूं आखिर
सुना है मौत का एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है-तो फिर होगा
किसे परवा ...
और ये दुनिया-
ड्राइंगरूमों, कहवाखानों और बेजान मयखानों की ये दुनिया
मुझे बिल्कुल भूला ही दे तो अच्छा है कि मेरी
दास्तां में न जाने कितनी बार उसका
नाम आयेगा
कि मुझको और मेरे फन को डंसा है इन पुरानी नागिनों ने
कहवाखानों और ड्राइंगरूमों की इन सालखुर्दा (वयोवृद्ध) नागिनों ने
रूप में इन्सान के आकर
मेरा फन मर गया, यारो
मैं नीला पड़ गया यारो
मुझे ले जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना
वो मेरी मां है
वो मेरे बदन का जहर पी लेगी
हजारों बार मुझको खो चुकी है वो
मुझे खोकर वो फिर इक बार जी लेगी
वो मेरी मां है
वो मेरे बदन का जहर पी लेगी
मगर शायद वतन से दूर मौत आये
बहुत ही दूर-इतनी दूर मौत आये कि मुझको मेरी मां के पास
ले जाना न मुमकिन हो
तो ये मेरी वसीयत है कि ये कागज मेरे घर के पते पर भेज दो
और मुझको ले जाकर
अगर उस शहर में या गांव में छोटी सी इक नदी भी बहती हो
तो मुझको उसकी गोदी में सुला दो और उस नदी से
ये कह दो कि ये गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है
वो नदी भी मेरी मां, मेरी गंगा की तरह
मेरे बदन का जहर पी लेगी