सेठ गोविंद दास: हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के बड़े पैरोकार


राजीव रंजन

भारत में हिन्दी के उत्थान के लिए जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उनमें सेठ गोविन्द दास का नाम अनन्य है। उन्होंने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी हिन्दी के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया। यहां तक कि हिन्दी के सवाल पर वह अपनी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की नीति से अलग जाकर संसद में हिंदी का जोरदार समर्थन किया। वह भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी के जबरदस्त समर्थक थे। ‘महाकौशल केसरी’ गोविंद दास साहित्यकार के साथ-साथ सफल राजनेता भी थे। वह 1923 में केंद्रीय सभा के लिए चुने गए। साथ ही 1947 से 1974 तक, जब तक जीवित रहे, कांग्रेस के टिकट पर जबलपुर के सांसद भी रहे। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें 1961 में भारत के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था।

सेठ गोविन्द दास का जन्म जबलपुर के बहुत समृद्ध माहेश्वरी परिवार में सेठ जीवनदास के पुत्र के रूप में 16 अक्टूबर, 1896 को हुआ था। इनके दादा सेठ गोकुल दास ने अपने पारिवारिक कारोबार को बहुत ऊंचाई पर पहुंचाया, इसीलिए उन्हें राजा गोकुल दास भी कहा जाता था। गोविन्द दास की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। जब पह 20 साल के हुए तो उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया और 26-27 साल की उम्र में ही केन्द्रीय सभा के लिए चुने गए। गोविन्द दास ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और कई बार उन्हें जेल यात्रा भी करनी पड़ी। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए सभी आंदोलनों में भाग लिया। गांधी जी के असहयोग आंदोलन का युवा गोविंद दास पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपने वैभवशाली जीवन का परित्याग कर दिया। लोगों की सेवा करने वाले दल में शामिल हो गए। दर-दर की खाक छानी, जेल गए, जुर्माना भुगता और सरकार से बगावत के कारण पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकार भी गंवाया।

सेठ गोविंद दास हिन्दी और भारतीय संस्कृति में प्रबल अटल विश्वास रखने वाले थे। उन्होंने बहुत कम उम्र से ही साहित्य रचना शुरू कर दी थी। हिन्दी में उन्होंने 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं। उनके लेखन में भारतीय पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। साथ ही, उनकी रचनाएं अपने भीतर सामाजिक दृष्टि भी समेटे हुए थीं। उनके साहित्य पर पहला प्रभाव तिलिस्मी उपन्यास ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के लेखक देवकीनंदन खत्री का पड़ा। ‘चंद्रकाता’ से प्रभावित होकर उन्होंने ‘चंपावती’, ‘कृष्णलता’ और ‘सोमलता’ नामक उपन्यास लिखे। बाद में प्रसिद्ध अंग्रेजी नाटककार शेक्सपीयर से प्रभावित हुए। शेक्सपीयर के नाटकों से प्रेरणा लेकर उन्होंने ‘सुरेन्द्र-सुंदरी, ‘कृष्णकामिनी’, ‘होनहार’ और ‘व्यर्थ संदेह’ नामक उपन्यासों की रचना की।

गोविन्द दास की साहित्यिक यात्रा उपन्यासों के साथ प्रारम्भ हुई। फिर उनकी रुचि कविता में भी हुई। अपने उपन्यासों में भी उन्होंने जगह-जगह काव्य का प्रयोग तो किया ही, अलग से भी ‘वाणासुर-पराभव’ नाम का काव्य रचा। 1917 में उनका पहला नाटक ‘विश्व प्रेम’ प्रकाशित हुआ, जिसका मंचन भी हुआ। प्रसिद्ध विदेशी नाटककार इब्सन से प्रेरित लेकर गोविन्द दास ने अपने लेखन में काफी बदलाव किया और प्रतीक शैली में नाटकों की रचना की। ‘विकास’ उनका स्वप्न नाटक है। ‘नवरस’ उनका नाट्य-रुपक है। हिन्दी में पहले-पहल मोनो ड्रामा उन्होंने ही लिखे।

हिन्दी भाषा के हित की चिंता में तन-मन-धन से लगे गोविंद दास हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी रहे। आज से करीब 65 वर्ष पूर्व (1960-62) उन्होंने ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्’ के नवें वाषिर्कोत्सव में सभापति के रूप में भाषण देते हुए हिन्दी विरोधियों की धज्जियां उड़ा दी थीं। वह ऐतिहासिक भाषण आज भी उतना ही प्रसंगिक है, जितना उस समय था। अपने भाषण में उन्होंने इस विडंबना को रेखांकित किया अपने ही देश में हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए याचना करनी पड़ रही है। उन्होंने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया था कि जब चार-पांच वर्ष पूर्व स्वतंत्र हुए देश अपनी भाषा और लिपि का प्रयोग शुरू कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं! अपने भाषण में भारत के उन शिक्षाशास्त्रियों, प्रशासकों और नेताओं को भी जम कर लताड़ लगाई कि वे अंग्रेजी को ही सर्वस्व माने बैठे हुए हैं। उन्होंने इस बात को पूरे दमखम के साथ रेखांकित किया कि हिन्दी में नए शब्दों के निर्माण की स्वाभाविक क्षमता है। अपने उस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने उस भ्रम का भी पूरे तर्क के साथ खंडन किया था कि अंग्रेजी भारत को जोड़ने वाली भाषा है।


हिन्दी के अद्वितीय सेवक गोविन्द दास जब तक जीवित रहे, हिन्दी के उत्थान में लगे रहे। इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं कि वैसे लोगों के प्रयासों बदौलत ही हिन्दी तमाम अवरोधों के बावजूद देश की सबसे प्रमुख भाषा है। और आज भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में इसकी कीर्ति पताका फहरा रही है।

सेठ गोविंद दास: परिचय
जन्म-16 अक्टूबर, 1896
मृत्यु- 18 जून, 1974
पिता- जीवन दास
पार्टी- कांग्रेस

• हिन्दी में 100 से ज्यादा पुस्तकों की रचना, जिनमें उपन्यास, काव्य और नाटक तीनों शामिल
• 1923 में केन्द्रीय सभा के लिए चुने गए
• 1947 से 1974 तक जबलपुर लोकसभा सीट से सांसद रहे
• महात्मा गांधी के सभी आंदोलनों में हिस्सा लिया और कई बार जेल यात्रा की
• 1961 में पद्मभुषण से सम्मानित किए गए
• सेठ गोविंद दास भारतीय संस्कृति और हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे।
• हिन्दी के प्रश्न पर उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस की नीति से हटकर संसद में पूरी मजबूती से हिन्दी का पक्ष लिया।

(हिन्दुस्तान में 12 सितंबर 2017 को प्रकाशित)

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