‘अलीबाबा’ और ‘गुफा’ की रोचक दास्तान
शुभ मंगल सावधान
3 स्टार
कलाकार: आयुष्मान खुराना, भूमि पेडणेकर, सीमा पाहवा, बृजेंद्र काला, सुप्रिया शुक्ला, अंशुल चौहान
निर्देशक: आर.एस. प्रसन्ना
हाल-फिलहाल कुछ ऐसी फिल्में आईं हैं, जिन्होंने यह सिद्ध किया है कि शुष्क और नीरस हुए बगैर भी गंभीर मसलों पर बात की जा सकती है। एकदम मनोरंजक अंदाज में। ‘हिंदी मीडियम’, ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ इसका हालिया उदाहरण हैं। ‘शुभ मंगल सावधान’ भी ऐसी ही फिल्म है। यह ‘मर्दाना कमजोरी’ जैसे विषय को हल्के-फुल्के अंदाज में उठाती है, जिसके बारे में सार्वजनिक रूप से बात करना हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता।
मुदित शर्मा (आयुष्मान खुराना) गुड़गांव में रहता है। सुगंधा (भूमि पेडणेकर) दिल्ली के मोती बाग में रहती है। दोनों की राहें नेहरू प्लेस में टकराती हैं। मुदित को सुगंधा अच्छी लगती है। सुगंधा को भी मुदित अच्छा लगता है। लेकिन समस्या यह है कि मुदित यह बात बता नहीं पाता और सुगंधा चाहती है कि मुदित पहल करे। एक दिन वह दोस्तों के कहने पर हिम्मत जुटाता है और सुगंधा से अपनी भावनाओं का इजहार करने जाता ही है कि बीच में उसे भालू पकड़ लेता है। आखिरकार मुदित अपनी मां के कहने पर सुगंधा को ऑनलाइन रिश्ता भेज देता है। दोनों का रिश्ता तय हो जाता है। दोनों एक-दूसरे से मिलने-जुलने लगते हैं। एक दिन एकांत में दोनों बहुत नजदीक आ जाते हैं, लेकिन मुदित बहुत कोशिश करने के बाद भी ‘कुछ’ कर नहीं पाता। इससे फ्रस्टेट होकर वह सुगंधा से दूर रहने लगता है। वह जब भी इस बारे में कुछ पूछती है तो मुदित कहता है कि ‘जेंट्स प्रॉब्लम है और वह इसे सुलझाने की कोशिश कर रहा है। वह ‘मर्दानगी’ का तथाकथित इलाज करने वाले कई झोला छाप डॉक्टरों के पास भी जाता है। इसी समस्या को पृष्ठभूमि में रखते हुए कहानी आगे बढ़ती है।
हालांकि ऐसा लगता है कि फिल्म ‘मर्दाना कमजोरी’ के विषय पर केंद्रित है, लेकिन मूल रूप से यह एक मध्यवर्गीय लड़के और लड़की की प्रेम कहानी है, जिसे ‘जेन्ट्स प्रॉब्लम’ का कोण देकर पेश किया गया है। इससे फिल्म में मनोरंजन का तत्त्व काफी बढ़ जाता है। यह फिल्म मजाकिया अंदाज में कई पहलुओं को स्पर्श करती है। इसमें ‘जेन्ट्स प्रॉब्लम’ से लेकर केले के पेड़ से शादी जैसे अंधविश्वास भी शामिल हैं। साथ ही वनलाइनर के जरिये कई मुद्दों पर चुटीली टिप्पणी भी करती है।
‘दम लगा के हईशा’ के बाद आयुष्मान खुराना, भूमि पेडणेकर और हरिद्वार का संगम एक बार फिर इस फिल्म में देखने को मिला है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह मेल पिछली बार की तरह ही एक बार फिर असरदार रहा है। भूमि और आयुष्मान की केमिस्ट्री बहुत बढ़िया लगती है। फिल्म के निर्देशक आर.एस. प्रसन्ना ने अपनी ही दक्षिण भारतीय (तमिल) फिल्म ‘कल्याण समयेल सादम’ के हिंदी रीमेक को उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि में शानदार तरीके से पेश किया है। इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। उन्हें लेखक हितेश केवलिया का पूरा साथ मिला है। सच मानिए, बढ़िया कास्ट, अच्छा निर्देशन, अच्छा विषय होने के बावजूद अगर फिल्म के संवाद दमदार और आसान भाषा वाले नहीं होते तो फिल्म का स्वाद फीका हो जाता।
फिल्म के संवाद इसकी सबसे बड़ी खासियत हैं, जो मजेदार हैं, दमदार हैं। खासकर अली बाबा और गुफा का जो रूपक संवादों के जरिये रचा गया है, वह ज़बरदस्त है। फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। खासकर क्लाईमैक्स के कुछ दृश्य उपदेशात्मक और नाटकीय लगते हैं। वहीं हमारा मध्यवर्गीय समाज अभी भी इतना नहीं खुला है कि ससुर-दामाद और मां-बेटी खुल कर सेक्स से जुड़ी समस्याओं पर बात कर सकें। खैर, सिनेमा को सिनेमा के नजरिये से देखना ही उचित रहेगा।
आयुष्मान खुराना ने अब तक जो फिल्में की हैं, वे उनके ‘बॉय नेक्स्ट डोर’ वाली इमेज को ही पुख्ता करती हैं, अपवादों को छोड़ दें तो। यह उनकी शख्सीयत को सूट भी करता है। इस फिल्म में उन्होंने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। वे इस किरदार के लिए एकदम परफेक्ट लगते हैं। भूमि भी अपने किरदार को पूरी तरह साकार कर पाने में कामयाब हैं। मराठी होते हुए भी दिल्ली की लड़की के लहजे को उन्होंने अच्छे-से पकड़ा है। वह भी बिल्कुल आम लड़की जैसी लगती हैं। भूमि की मां और आयुष्मान की सास (बरेली की बर्फी के बाद एक बार फिर) के रूप में सीमा पाहवा अच्छी लगी हैं। भूमि के पिता का किरदार मजेदार है और उसे बहुत अच्छी तरह निभाया गया है। आयुष्मान की मां के रूप में सुप्रिया शुक्ला के पास बहुत ज्यादा मौके नहीं थे, फिर भी वह अच्छी लगी हैं। आयुष्मान के पिता का किरदार भी अच्छा है। सुगंधा की सहेली गिन्नी के रूप में अंशुल चौहान प्रभावित करती हैं। बृजेंद्र काला जबर्दस्त कलाकार हैं। छोटी भूमिकाओं में भी अपना असर छोड़ जाते हैं। उन्होंने सुगंधा के ताऊ जी का किरदार निभाया है। वह जब भी पर्दे पर आते हैं, हंसी का गट्ठर लेकर आते हैं।
फिल्म की पूरी स्टारकास्ट शानदार है। यह फिल्म देखने लायक है। जब आप सिनेमाहॉल से बाहर निकलेंगे तो आपके होठों पर मुस्कान होगी।
(2 सितंबर 2017, शनिवार को हिन्दुस्तान और 1 सितंबर 2017, शुक्रवार को livehindustan.com में प्रकाशित)
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