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दिसंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साहिर लुधियानवी की नज्‍म 'कल और आज'

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आज भी बूंदें बरसेंगी आज भी बादल छाये हैं और कवि इस सोच में है बस्‍ती पे बादल छाये हैं, पर ये बस्‍ती किसकी है धरती पर अमृत बरसेगा, लेकिन धरती किसकी है हल जोतेगी खेतों में अल्‍हड़ टोली दहकाओं (किसानों) की धरती से फुटेगी मेहनत फाकाकश इंसानों की फसलें काट के मेहनतकश गल्‍ले के ढेर लगाएंगे जागीरों के मालिक आकर सब पूंजी ले जाएंगे बुढ़े दहकाओं के घर बनिये की कुर्की आएगी और कर्जे के सूद में कोई गोरी बेची जाएगी आज भी जनता भूखी है और कल भी जनता तरसी थी आज भी रिमझिम बरखा होगी कल भी बारिश बरसी थी आज भी बादल छाये हैं आज भी बूंदें बरसेंगी और कवि सोच रहा है... (साहिर लुधियानवी)

डॉ. राही मासूम रजा की कविता ''मरसिया''

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मरसिया एक चुटकी नींद की मिलती नहीं अपने जख्‍मों पर छिड़कने के लिए हाय हम किस शहर में मारे गए। घंटियां बजती हैं जीने पर कदम की चाप है फिर कोई बेचेहरा होगा मुंह में होगी जिसके मक्‍खन की जुबां सीने में जिसके होगा एक पत्‍थर का दिल मुस्‍करा कर मेरे दिल का एक वरक ले जाएगा हाय हम किस शहर में मारे गए।

राही मासूम रजा की कविता 'वसीयत'

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वसीयत वसीयत क्‍या करूं आखिर न जाने मौत किस आलम आयेगी किसे मालूम वो मुख्‍तार (स्‍वच्‍छंद) या मजबूर आयेगी किसे मालूम हंसती-खेलती आयेगी या जख्‍मों से बिल्‍कुल चूर आयेगी वतन में- या वतन से दूर आयेगी वसीयत क्‍या करूं- किससे करूं आखिर बहुत मुमकिन है जिसके हाथ में ये दास्‍तां आये वो मेरी इस जुबां ही से वा‍किफ न हो! तो फिर आखिर वसीयत क्‍या करूं-किससे करूं आखिर सुना है मौत का एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है-तो फिर होगा किसे परवा ... और ये दुनिया- ड्राइंगरूमों, कहवाखानों और बेजान मयखानों की ये दुनिया मुझे बिल्‍कुल भूला ही दे तो अच्‍छा है कि मेरी दास्‍तां में न जाने कितनी बार उसका नाम आयेगा कि मुझको और मेरे फन को डंसा है इन पुरानी नागिनों ने कहवाखानों और ड्राइंगरूमों की इन सालखुर्दा (वयोवृद्ध) नागिनों ने रूप में इन्‍सान के आकर मेरा फन मर गया, यारो मैं नीला पड़ गया यारो मुझे ले जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना वो मेरी मां है वो मेरे बदन का जहर पी लेगी हजारों बार मुझको खो चुकी है वो मुझे खोकर वो फिर इक बार जी लेगी वो मेरी मां है वो मेरे बदन का जहर पी लेगी मगर शायद वतन से दूर मौत आये बहुत ही