संदेश

2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

500 करोड़ी क्लब और चीन में दंगल

चित्र
राजीव रंजन बस कुछ घंटों में यह साल 2017 भी बीत जाएगा और हर बीते साल की तरह इसकी भी कुछ खट्टी मीठी यादें हमारे जेहन में रह जाएंगी। इस वर्ष जीवन के हर क्षेत्र में कुछ न कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियां देखने को मिलीं। बॉलीवुड भी इस वर्ष दो ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा, जिसने भारतीय सिनेमा में ऐसा मील का पत्थर स्थापित किया है, जिसे पार करना आासान नहीं होगा। और इन उपलब्धियों का श्रेय जाता है ‘बाहुबली 2’ और ‘दंगल’ को। इन दोनों फिल्मों ने यह दिखाया कि भारतीय सिनेमा किन ऊंचाइयों पर जा सकता है। उसमें कितनी संभावनाएं हैं। वहीं कुछ सितारे इस दुनिया को अलविदा भी कह गए। ‘बाहुबली 2’ ने जहां घरेलू बॉक्स ऑफिस पर सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए, वहीं ‘दंगल’ ने चीन में ऐसा धमाल मचाया कि लोग हैरान रह गए। आमिर खान की ‘पीके’ ने घरेलू बॉक्स ऑफिस पर ‘300 करोड़ी क्लब’ की शुरुआत तो पहले ही कर दी थी और उनकी ‘दंगल’ (387 करोड़ रुपये) चार सौ करोड़ रुपये के करीब पहुंची थी, लेकिन वह ‘400 करोड़ी क्लब’ नहीं शुरू कर सकी। बॉलीवुड को इस क्लब का बेसब्री से इंतजार था। लेकिन ‘बाहुबली’ ने सीधे ‘500 करोड़ी क्लब’ की शुरुआत कर दी। हिंदी, त

टाइगर लौटा है, ज्यादा धूमधड़ाके के साथ

चित्र
राजीव रंजन फिल्म: टाइगर जिंदा है निर्देशक: अली अब्बास जफर कलाकार: सलमान खान, कैटरीना कैफ, परेश रावल, कुमुद मिश्रा, अंगद बेदी, गिरीश कर्नाड, सज्जाद देलाफरोज, अनुप्रिया गोयनका रेटिंग: 2.5 स्टार वीडियो रिव्यू भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के आम लोग अमन पसंद हैं और वे नहीं चाहते कि दोनों मुल्क आपस में लड़ें। लेकिन ये बात दोनों देश के नेताओं के एजेंडे को सूट नहीं करती। यह विषय बॉलीवुड को काफी पसंद है और यही वजह है कि इस थीम को केंद्र में रख कर बॉलीवुड कई फिल्में बना चुका है। ‘टाइगर जिंंदा है’ और इसकी पहली किश्त ‘एक था टाइगर’ के केंद्र में भी यही विचार है। वैसे यशराज बैनर की ही यश चोपड़ा निर्देशित ‘वीर जारा’ का भी संदेश यही था। पर उस फिल्म में यह संदेश विशुद्ध प्रेम कहानी के जरिये दिया गया था, जबकि ‘टाइगर जिंदा है’ में यह संदेश एक्शन की जबरदस्त खुराक के साथ दिया गया है। हालांकि इसमें भी प्रेम है, पर एक्शन उस पर बहुत भारी है। यह फिल्म इराक में भारतीय नर्सों के अपहरण और उनके बचाव ऑपरेशन पर आधारित है। 'एक था टाइगर' में रॉ एजेंट अविनाश सिंह राठौड़ उर्फ टाइगर (सलमान खान)और आईए

सच्चे अर्थों में भारत रत्न थे श्रीनिवास रामानुजन

चित्र
राजीव रंजन भारत के महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन ने जो काम केवल 32 वर्ष की उम्र में कर दिया, वैसा शायद ही देखने को मिलता है। इसीलिए उन्हें आधुनिक समय के सबसे महान गणितज्ञों में से एक माना जाता है। श्रीनिवास अयंगर रामानुजन का जन्म 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु के छोटे-से गांव ईरोड में हुआ था। उन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला था, फिर भी उन्होंने गणित के क्षेत्र में ऐसे सिद्धांत दिए कि पूरी दुनिया हैरान रह गई। उन्होंने अपनी गणितीय खोजों से पूरी दुनिया में भारत का नाम ऊंचा किया। उन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने छोटे से जीवनकाल में गणित के 3,884 प्रमेयों (थ्योरम) का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किए जा चुके हैं। रामानुजन ने अपनी प्रतिभा की बदौलत जो खोजें कीं, उनके आधार पर कई शोध हुए। उनके सूत्र (फॉर्मूला) कई वैज्ञानिक खोजों में मददगार बने। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिए रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है। रामानुजन ने जो भी उपलब्धि हासिल की, वह अपनी प्रतिभा के दम पर की। रामानुजन की मां का नाम कोमलताम्मल और पिता का नाम

मजा वही, पर सादगी वैसी नहीं

चित्र
राजीव रंजन फिल्म: फुकरे रिटर्न्स 2.5 स्टार (ढाई स्टार) कलाकार: वरुण शर्मा, पुलकित सम्राट, ऋचा चड्डा, मनजोत सिंह, अली फजल, पंकज त्रिपाठी, प्रिया आनंद, विशाखा सिंह, राजीव गुप्ता निर्देशक: मृगदीप लाम्बा किसी सफल फिल्म के सीक्वल के साथ एक अच्छी बात यह होती है कि उसे लेकर लोगों में उत्सुकता बनी रहती है। इस तरह उसे एक शुरुआती लाभ मिल जाता है। लेकिन इसके साथ साथ एक जोखिम भी जुड़ा रहता है कि लोग उसकी तुलना पिछली फिल्म से करते हैं। और फिल्म उस कसौटी पर खरी नहीं उतरती तो नकार दी जाती है। ‘फुकरे रिटर्न्स’ को फायदा तो मिल ही चुका है और जहां तक तुलना की बात है तो फिल्म उस कसौटी पर भी निराश नहीं करती। हालांकि यह जरूर है कि 2013 में आई ‘फुकरे’ को लोगों ने उसके किरदारों व कहानी की जिस सरलता और गुदगुदाने वाली कॉमेडी के लिए पसंद किया था, वह ‘रिटर्न’ में नहीं मिलती। अगर कॉमेडी की बात करें तो वह पूरी तरह मौजूद है। शायद ही कोई ऐसा सीन हो, जिसमें हंसी की फुहारें नहीं हैं। लेकिन वो सादगी और सरलता ‘मिसिंग’ है। दरअसल पिछली फिल्म में जो नेताजी महज संदर्भ के लिए थे, इस बार वह कहानी का अहम हिस्सा ह

शशि कपूर: सार्थक सिनेमा का मुहाफिज

चित्र
राजीव रंजन शशि कपूर भी कमाल के शख्‍स थे। अभिनेता के रूप में मुख्‍यधारा के सिनेमा से कमाया और निर्माता के रूप में ‘जुनून’, ‘उत्‍सव’, ’36 चौरंगी लेन’ और ‘कलयुग’ जैसी ऑफबीट फिल्‍मों में लगाया। ये एक कलाकार के रूप में उनकी संजीदगी को दिखाता है। उनकी मुख्‍य पहचान ठेठ मुंबइया हीरो के रूप में रही, जो हीरो के लिए बॉलीवुड के बनाए पैमाने पर खरा उतरता था। लेकिन उन्‍होंने अपने करियर के पीक पर ‘सिद्धार्थ’ जैसी बिल्‍कुल अलग तरह की फिल्‍म की। एक समय में ढेर सारी फिल्‍में करने की वजह से ‘टैक्‍सी’ का खिताब पाने वाले शशि कपूर थियेटर के लिए भी उतने ही संजीदा रहे। उन्‍होंने अपने पिता के ‘पृथ्‍वी थियेटर’ को पुनर्जीवित किया। एक सदाबहार अभिनेता और संजीदा शख्‍स शशि कपूर को सादर श्रद्धांजलि। उनकी आंखों में एक चमक थी। वैसी ही चमक, जो झरने के शफ्फाक पानी पर सूर्य की किरणों से पैदा होती है। वह चमक उनके अभिनय में भी दिखाई देती थी। फिल्म ‘त्रिशूल’ में जब वह कहते हैं कि ‘मोहब्बत बड़े काम की चीज है’ तो वह महज अभिनय करते नहीं दिखते, बल्कि उन शब्दों को उनके संपूर्ण अर्थ के साथ जीते दिखाई देते हैं। भारतीय सिनेमा

वक्त की बर्बादी है ‘ये इंतजार’

चित्र
राजीव रंजन कलाकार: अरबाज खान, सनी लियोने, आर्य बब्बर, गौहर खान, सुधा चंद्रन निर्देशक: राजीव वालिया संगीत: राज आशू रेटिंग- 1 स्टार ये फिल्म क्यों बनाई गई है और किसके लिए बनाई गई है, पूरी फिल्म देखने के बाद भी इसका उत्तर खोज पाना बड़ा कठिन है। ये क्राइम-थ्रिलर है या हॉरर है या रोमांटिक फिल्म है, यह भी तय कर पाना कठिन है। हालांकि फिल्म का शुरुआती का दृश्य थोड़ी-बहुत उत्सुकता जगाने वाला है, अविश्वसनीय होने के बावजूद। लेकिन उसके बाद सारी चीजें इतनी घिसी-पिटी होती हैं कि कोफ्त होने लगती है। वीर सिंह राजपूत (अरबाज खान) एक पेंटर है। वह अपनी ड्रीम गर्ल की तस्वीर बनाता है। जब तस्वीर पूरी हो जाती है तो उसे ठीक तस्वीर वाली लड़की दिखाई देती है। उस लड़की का नाम रौनक (सनी लियोने) है। वीर उसका पीछा करता है। रौनक एक आर्ट क्यूरेटर है। वीर उसकी गैलरी में अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगाना चाहता है। रौनक उससे कहती है कि गैलरी में सिर्फ एक्सक्लूसिव पेंटिंग लगााई जाती हैं। वीर उसे अपनी ड्रीम गर्ल वाली पेंटिंग दिखाता है। रौनक यह देख कर हैरान हो जाती है। फिर दोनों में प्यार हो जाता है। दोनों ‘तुम मेरा साथ

होलिस्टिक खानपान: तन के साथ मन की भी सेहत

चित्र
व्यस्तता, हड़बड़ी और सुविधा वाली जीवनशैली की बड़ी कीमत हमें चुकानी पड़ रही है। इसकी वजह से पिछले कुछ सालों में डायबिटीज, हृदय रोग, मोटापा और अवसाद जैसी बीमारियों में कई गुणा वृद्धि हुई है। यही वजह है कि इन दिनों काफी लोग होलिस्टिक खानपान की ओर देखने लगे हैं। राजीव रंजन का आलेख: महाभारत से जुड़ा एक प्रसिद्ध आख्यान है। जब भीष्म पितामह शरशैय्या पर पड़े हुए थे। श्रीकृष्ण और पांडव उनसे मिलने गए। सब उनसे अपनी अपनी जिज्ञासाएं प्रकट कर रहे थे और भीष्म पितामह उनके प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे। तभी द्रौपदी ने उनसे एक चुभता हुआ प्रश्न किया- पितामह! आप तो महाज्ञानी और महावीर थे। कौरव-पांडव और अन्य सभी आपका बहुत सम्मान करते थे। लेकिन भरी सभा में जब दु:शासन मेरा चीरहरण कर रहा था, तब आप मौन रहे! मुझे उस अपमान से बचाने के लिए आपने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? भीष्म पितामह ने उत्तर दिया- बेटी! उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खा रहा था, इसलिए मेरी बुद्धि नष्ट हो गई और मैं मौन भरी सभा में अपनी आंखों के सामने वह सब होता देखता रहा। भारत में बहुत पहले से यह धारणा प्रचलित रही है कि हम जो खाते हैं, उसका अच्छा या

मैं ‘माइंडलेस सिनेमा’ नहीं बनाता: नीला माधब पांडा

चित्र
नीला माधब पांडा एक ऐसे फिलमकार हैं, जो सिनेमा का उपयोग मुद्दे की बात उठाने के लिए करते हैं। चाहे पढ़ाई-लिखाई के महत्व को बताती ‘आई एम कलाम’ हो या फिर कन्या भ्रूण हत्या पर ‘जलपरी’ हो, अपनी हर फिल्म का उपयोग उन्होंने समाज के लिए जरूरी बात कहने में किया है। अब वह जलवायु परिवर्तन पर ‘कड़वी हवा’ लेकर आए हैं, जो इस विषय पर भारत की पहली हिंदी फिल्म है। उनसे राजीव रंजन की बातचीत: ‘कड़वी हवा’ क्या है? क्या यह केवल भारत में क्लाइमेट के बदलाव पर बात करती है या इसकी चिंता पूरी दुनिया को लेकर है? चीजें बदल चुकी हैं। पूरी दुनिया का क्लाइमेट बदल चुका है और हमारा जीवन इससे प्रभावित हो रहा है। नवंबर खत्म होने को है और दिल्ली में अभी ठंड पूरी तरह शुरू नहीं हुई। इस फिल्म के जरिये हम किसी एक जगह की पृष्ठभूमि में पूरी दुनिया के बारे में बात कर रहे हैं। हमारी फिल्म की चिंता का विषय केवल भारत नहीं है, बल्कि हमारी चिंता पूरी दुनिया के संदर्भ में है। आप 12 वर्ष पहले इस मुद्दे से जुड़ी एक डॉक्यूमेंटरी ‘क्लाइमेट्स फस्र्ट ऑरफान’ भी बना चुके हैं। क्या ‘कड़वी हवा’, ‘क्लाइमेट्स फस्र्ट ऑरफान’ का विस्तार है? ‘क्ल

कड़वी हकीकत की मार्मिक कहानी

चित्र
राजीव रंजन साढ़े तीन स्टार फिल्म: कड़वी हवा निर्देशक: नीला माधब पांडा कलाकार: संजय मिश्रा, रणवीर शोरी, तिलोत्तमा शोम, भूपेश सिंह, एकता सावंत कला की सार्थकता तभी है, जब वह यथास्थिति को चुनौती दे। जब आप बेचैन हों तो आपको शांति से भर दे और जब आप निश्चेष्ट हों तो आपको बेचैन कर दे। नीला माधब पांडा की ‘कड़वी हवा’ बेचैन करती है। यह मनोरंजन नहीं करती है, लेकिन मन को झकझोरती है। और ऐसा झकझोरती है कि जब आप सिनेमाहॉल से निकलेंगे तो थोड़े हिले हुए तो जरूर होंगे। यह फिल्म दो भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों- चंबल इलाके के एक नेत्रहीन वृद्ध यानी बाबा (संजय मिश्रा) और ओडिशा के तटीय क्षेत्र के एक गांव के गन्नू (रनवीर शौरी) की कहानी है। दोनों प्रकृति की मार से सहमे अपने घर-परिवार को बचाने के लिए जी-जान से लगे हैं। एक की बेचैनी उसकी दयनीयता में प्रकट होती है और दूसरे की हृदयहीनता में। संजय मिश्रा सूखा प्रभावित बुंदेलखंड के एक गांव महुआ के निवासी हैं। उनके बेटे मुकुंद (भूपेश सिंह) पर बैंक का कर्ज चढ़ गया है। वह हमेशा कर्ज की चिंता से घिरा रहता है और बाबा इस चिंता से घिरे रहते हैं कि कहीं उनका बेटा दूसरे

निराश नहीं करती है सुलु

चित्र
राजीव रंजन कलाकार: विद्या बालन, मानव कौल, नेहा धूपिया, विजय मौर्य, अभिषेक शर्मा निर्देशक व लेखक: सुरेश त्रिवेणी ढाई स्टार (2.5 स्टार) एक अच्छी फिल्म वह होती है, जो अपने विषय, प्रस्तुतीकरण, सिनेमाई प्रभाव और कलाकारों के अभिनय की बदौलत शुरू से लेकर आखिर तक पटरी पर रहती है। एक सामान्य फिल्म वह होती है, जो काफी देर तक पटरी पर रहती है, लेकिन फिर पटरी से उतर जाती है। हालांकि वह दुबारा पटरी पर आती है, लेकिन तब तक अपना वह प्रभाव खो चुकी होती है, जो उसने शुरुआती क्षणों में पैदा किया था। विद्या बालन की ‘तुम्हारी सुलु’ दूसरी वाली श्रेणी में आती है। फिल्म के पहले हाफ में इसने जो ऊंचाई हासिल की थी, दूसरे हाफ में उसको बरकरार नहीं रख पाती और वहां से फिसल जाती है। यह कहानी है सुलोचना उर्फ सुलु (विद्या बालन) की, जो मुंबई के उपनगर विरार में रहती है। उसका एक छोटा-सा परिवार है, जिसमें पति अशोक (मानव कौल) और बेटा प्रणव (अभिषेक शर्मा) हैं। सुलु भी एक सामान्य गृहिणी है और अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में जुटी रहती है, लेकिन उसके साथ ही उसमें ‘कुछ करने’ की तमन्ना भी जोर मारती रहती है। उ

रुख: सबके लिए नहीं है यह कहानी

चित्र
राजीव रंजन फिल्म: रुख ढाई स्टार (2.5 स्टार) निर्देशक: अतनु मुखर्जी निर्माता: मनीष मुंद्रा कलाकार: मनोज बाजपेयी, आदर्श गौरव, स्मिता तांबे, कुमुद मिश्रा संगीत: अमित त्रिवेदी एक बात पहले ही साफ कर देनी जरूरी है कि ‘रुख’ वीकेंड पर एन्जॉय करने वाला सिनेमा नहीं है। जिस तरीके से इसे बनाया गया है, उससे जान पड़ता है कि इसे मास के लिए ध्यान में रख कर नहीं बनाया गया है। हालांकि फिल्म की जो कहानी है, उसमें तेज गति वाली एक सस्पेंस थ्रिलर की तमाम संभावनाएं मौजूद थीं, साथ ही भावनापूर्ण दृश्यों की भी काफी संभावना थी, लेकिन लेखक-निर्देशक अतनु मुखर्जी ने इस कहानी को अपने तरीके से कहने की कोशिश की है। यह फिल्म दिखाती है कि अपने परिवार के भविष्य की चिंता में कोई व्यक्ति कहां तक जा सकता है! दिवाकर माथुर (मनोज बाजपेयी) मुंबई में एक चमड़े का कारखाना चलाता है। उसकी फैक्ट्री संकट में है। वह अपने पार्टनर रोबिन (कुमुद मिश्रा) से पैसों का इंतजाम करने के लिए कहता है, लेकिन रोबिन उसे उधार लेकर काम चलाने को कहता है और कुछ समय बाद पैसों का बंदोबस्त करने का आश्वासन देता है। दिवाकर कहीं से उधार लेकर फैक्ट्री

जय हो छठी मैया। जय हो सुरुज देव।

चित्र
राजीव रंजन जय हो छठी मैया। जय हो सुरुज देव। दुनिया भर के सभी त्योहार लोक पर्व होते हैं, क्योंकि बिना लोक के धर्म की रक्षा नहीं हो सकती और बिना धर्म के लोक भी रक्षित नहीं हो सकता। हमारे यहां कहा भी गया है- ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’ तो हर पर्व में शास्त्र के अनुशासन के साथ लोक तत्त्व भी सहज स्वाभाविक रूप से घुला होता है। लोक को धर्म से और धर्म को लोक से अलग नहीं किया जा सकता। शास्त्र सम्मत पर्वों में भी हर युग अपनी अनुकूलताओं का तत्त्व जोड़ कर पर्व को युगानुकूल और युग को धर्मानुकूल बना लेता है। छठ भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन इसे हम पुरबिया लोग ‘लोक आस्था का महापर्व’ कहते और मानते हैं। इसे हमारी भावनात्मक तरलता कहा जा सकता है। लेकिन यह सिर्फ पुरबिया लोक की भावुकता नहीं है। वास्तव में इस लोक महापर्व में शास्त्र के अनुशासन के साथ लोक की भावना का जो दिव्य प्रस्फुटन देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। जब असंख्य व्रती अपने परिवार के साथ दौरा लेकर छठ घाट की ओर प्रस्थान करते हैं और एक साथ पहले अस्ताचलगामी भगवान सूर्य और फिर उदित होते सूर्य देव को एक साथ अघ्र्य देते हैं तो ऋग्वेद का यह मं

बा के बिना अधूरे थे बापू

चित्र
राजीव रंजन ‘बा के बिना जीने की आदत डालूंगा...।’ दोनों भाइयों की हिचकी बंध गई। बापू ने हाथ से जाने का इशारा किया।’ (गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘बा’ से उद्धृत) ‘बापू’ में ‘बा’ समाहित है, यह सत्य है और यह भी उतना ही सत्य है कि ‘बा’ के बगैर ‘बापू’ भी अधूरे हैं। दोनों के 62 सालों के दाम्पत्य पर नजर डालें तो यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि ‘बापू’ में अगर ‘बा’ नहीं होतीं तो शायद वह मोहनदास से महात्मा का सफर नहीं तय कर पाते। 13 वर्ष की कच्ची आयु से शुरू हुआ दोनों का संग साथ 1944 में बा की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ। यह एक ऐसा दाम्पत्य जीवन था, जो जीवन में आए तमाम झंझावातों के बीच टिका रहा। मात्र टिका नहीं रहा, बल्कि हर कठिनाई के बाद और अटूट बनता गया। यह दाम्पत्य पत्नी का अपने पति के लक्ष्यों में खुद को समाहित कर लेने की प्रेरक गाथा है तो और अपनी पति द्वारा अपनी पत्नी को वास्तविक अर्थों में सहचर मानने की दास्तान है। दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। निजी और सार्वजनिक जीवन दोनों में। दोनों का दाम्पत्य जीवन आज की पीढ़ी के लिए भी उतना प्रेरक और प्रासंगिक है, जितना आज से एक शताब्दी पहले था। बा ने बापू के ल

लखनऊ सेंट्रल: कलाकार अच्छे, कहानी कमजोर

चित्र
राजीव रंजन कलाकार: फरहान अख्तर, डायना पेंटी, रवि किशन, दीपक डोबरियाल, रोनित रॉय, राजेश शर्मा, जिप्पी ग्रेवाल, इनामुल हक, वीरेंद्र सक्सेना रेटिंग- 2.5 स्टार छोटे शहर के लोगों के बड़े सपने और उन सपनों के बीच आने वाली बाधाएं, उन बाधाओं पर जीत और अंतत: सपनों का साकार होना। इस थीम पर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं और उनमें से कुछ ने असर भी छोड़ा है। इसी कड़ी में बॉलीवुड की नई पेशकश है ‘लखनऊ सेंट्रल’। फिल्म के सह-लेखक व निर्देशक रंजीत तिवारी और लेखक असीम अरोड़ा ने एक ऐसी कहानी बुनने की कोशिश की है, जिसमें संजीदगी, मनोरंजन और रोमांच, सब पर्याप्त मात्रा में हो। उन्होंने इसे ‘मास’ और ‘क्लास’ दोनों के लिए बनाने की कोशिश की है, लेकिन चूक गए हैं। यह एक शुद्ध मसाला बॉलीवुड फिल्म बन कर रह गई है, जिसमें मसालों का चयन और अनुपात भी ठीक नहीं है। किशन मोहन गिरहोत्रा (फरहान अख्तर) उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद का एक आम नौजवान है। वह गायक बनना चाहता है। अपना बैंड बनाना उसका सबसे बड़ा सपना है। वह अपनी सीडी रिकॉर्ड करता है और प्रसिद्ध गायक-अभिनेता मनोज तिवारी को सुनना चाहता है, जो उसके शहर में कंसर्ट के लिए

सेठ गोविंद दास: हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के बड़े पैरोकार

चित्र
राजीव रंजन भारत में हिन्दी के उत्थान के लिए जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उनमें सेठ गोविन्द दास का नाम अनन्य है। उन्होंने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी हिन्दी के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया। यहां तक कि हिन्दी के सवाल पर वह अपनी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की नीति से अलग जाकर संसद में हिंदी का जोरदार समर्थन किया। वह भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी के जबरदस्त समर्थक थे। ‘महाकौशल केसरी’ गोविंद दास साहित्यकार के साथ-साथ सफल राजनेता भी थे। वह 1923 में केंद्रीय सभा के लिए चुने गए। साथ ही 1947 से 1974 तक, जब तक जीवित रहे, कांग्रेस के टिकट पर जबलपुर के सांसद भी रहे। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें 1961 में भारत के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था। सेठ गोविन्द दास का जन्म जबलपुर के बहुत समृद्ध माहेश्वरी परिवार में सेठ जीवनदास के पुत्र के रूप में 16 अक्टूबर, 1896 को हुआ था। इनके दादा सेठ गोकुल दास ने अपने पारिवारिक कारोबार को बहुत ऊंचाई पर पहुंचाया, इसीलिए उन्हें राजा गोकुल दास भी कहा जाता था। गोविन्द दास की प्रारम्भ

खोपड़ी से काम मत लो! फूट जाएगी

चित्र
‘पोस्टर बॉयज’ की समीक्षा राजीव रंजन 2.5 स्टार कलाकार: सन्नी देओल, बॉबी देओल, श्रेयस तलपड़े, सोनाली कुलकर्णी, समीक्षा भटनागर, अश्विनी कलसेकर, भारती अचरेकर निर्देशक: श्रेयस तलपड़े पिछले शुक्रवार ‘मर्दानगी’ से जुड़ी भ्रांतियों पर एक फिल्म आई थी ‘शुभ मंगल सावधान’। इस हफ्ते भी ऐसे ही विषय से जुड़ी एक और फिल्म आई है ‘पोस्टर बॉयज’, जो नसबंदी के बारे में बात करती है। लेकिन गंभीरता से नहीं, चलताऊ हंसी-मजाक के साथ। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे समाज में नसबंदी कराने वालों को ‘अच्छी नजर’ से नहीं देखा जाता। नसबंदी को ‘मर्दानगी बंदी’ के रूप में देखा जाता है। इस फिल्म का ताना-बाना इसी कथ्य के इर्द-गिर्द बुना गया है। एक गांव है जंगीठी, जो भाषा, भाव, माहौल के लिहाज से हरियाणा का कोई गांव लगता है। यहां रहते हैं रिटायर्ड फौजी जगावर सिंह (सन्नी देओल), स्कूल मास्टर विनय शर्मा (बॉबी देओल) और रिकवरी एजेंट अर्जुन सिंह (श्रेयस तलपड़े)। जगावर सेल्फी लेने के शौकीन है, मास्टर को कोई चीज बताते हुए बीच में ही भूल जाने की आदत है। अर्जुन को टशन झाड़ने की आदत है और वह रॉक स्टार के अंदाज़ में रहता है। उसके दो च

‘अलीबाबा’ और ‘गुफा’ की रोचक दास्तान

चित्र
राजीव रंजन शुभ मंगल सावधान 3 स्टार कलाकार: आयुष्मान खुराना, भूमि पेडणेकर, सीमा पाहवा, बृजेंद्र काला, सुप्रिया शुक्ला, अंशुल चौहान निर्देशक: आर.एस. प्रसन्ना हाल-फिलहाल कुछ ऐसी फिल्में आईं हैं, जिन्होंने यह सिद्ध किया है कि शुष्क और नीरस हुए बगैर भी गंभीर मसलों पर बात की जा सकती है। एकदम मनोरंजक अंदाज में। ‘हिंदी मीडियम’, ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ इसका हालिया उदाहरण हैं। ‘शुभ मंगल सावधान’ भी ऐसी ही फिल्म है। यह ‘मर्दाना कमजोरी’ जैसे विषय को हल्के-फुल्के अंदाज में उठाती है, जिसके बारे में सार्वजनिक रूप से बात करना हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता। मुदित शर्मा (आयुष्मान खुराना) गुड़गांव में रहता है। सुगंधा (भूमि पेडणेकर) दिल्ली के मोती बाग में रहती है। दोनों की राहें नेहरू प्लेस में टकराती हैं। मुदित को सुगंधा अच्छी लगती है। सुगंधा को भी मुदित अच्छा लगता है। लेकिन समस्या यह है कि मुदित यह बात बता नहीं पाता और सुगंधा चाहती है कि मुदित पहल करे। एक दिन वह दोस्तों के कहने पर हिम्मत जुटाता है और सुगंधा से अपनी भावनाओं का इजहार करने जाता ही है कि बीच में उसे भालू पकड़ लेता है। आखिरकार