बा के बिना अधूरे थे बापू

राजीव रंजन

‘बा के बिना जीने की आदत डालूंगा...।’ दोनों भाइयों की हिचकी बंध गई। बापू ने हाथ से जाने का इशारा किया।’
(गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘बा’ से उद्धृत)

‘बापू’ में ‘बा’ समाहित है, यह सत्य है और यह भी उतना ही सत्य है कि ‘बा’ के बगैर ‘बापू’ भी अधूरे हैं। दोनों के 62 सालों के दाम्पत्य पर नजर डालें तो यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि ‘बापू’ में अगर ‘बा’ नहीं होतीं तो शायद वह मोहनदास से महात्मा का सफर नहीं तय कर पाते। 13 वर्ष की कच्ची आयु से शुरू हुआ दोनों का संग साथ 1944 में बा की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ। यह एक ऐसा दाम्पत्य जीवन था, जो जीवन में आए तमाम झंझावातों के बीच टिका रहा। मात्र टिका नहीं रहा, बल्कि हर कठिनाई के बाद और अटूट बनता गया।

यह दाम्पत्य पत्नी का अपने पति के लक्ष्यों में खुद को समाहित कर लेने की प्रेरक गाथा है तो और अपनी पति द्वारा अपनी पत्नी को वास्तविक अर्थों में सहचर मानने की दास्तान है। दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। निजी और सार्वजनिक जीवन दोनों में। दोनों का दाम्पत्य जीवन आज की पीढ़ी के लिए भी उतना प्रेरक और प्रासंगिक है, जितना आज से एक शताब्दी पहले था। बा ने बापू के लिए खुद को बदला, तो बापू ने भी अपने जीवन में बा की महत्ता को खुल कर स्वीकार किया। अपनी आत्मकथा में वह कहते हैं-
‘मेरे पूर्व के अनुभवों के मुताबिक वह (कस्तूरबा) बहुत हठी थी। मेरे सारे दबावों के बावजूद वह वही करती थी, जो करना चाहती थी। इसकी वजह से हमारे बीच थोड़े या ज्यादा समय तक मनमुटाव रहता। लेकिन जैसे-जैसे मेरा सार्वजनिक जीवन बढ़ता गया, मेरी पत्नी बढ़-चढ़ कर आगे आती गई और उसने मेरे कार्यों में खुद को डूबा दिया।...’

बा पढ़ी-लिखी नहीं थीं और इसके लिए बापू खुद को जिम्मेदार मानते हैं। ‘सत्य के साथ प्रयोग अथवा आत्मकथा’ में बापू लिखते हैं, ‘मैं मानता हूं कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित नहीं होता तो आज वह विदुषी होती। मैं उसके पढ़ने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूं कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।’ बापू यह भी स्वीकार करते हैं कि ‘जो लोग मेरे और बा के निकट संपर्क में आए हैं, उनमें ज्यादा संख्या तो ऐसे लोगों की है, जो मेरी अपेक्षा बा पर अधिक श्रद्धा रखते हैं।’


ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच किसी बात को लेकर मतभेद नहीं होते थे। लेकिन वे मतभेद कभी दोनों के जीवन में बाधा नहीं बने, बल्कि उन मतभेदों ने उन्हें के प्रति एक दृष्टि दी। दोनों को एक-दूसरे का अच्छा और सच्चा मित्र बनने में मदद की। ऐसा ही एक प्रसंग है, जब बा ने फीनिक्स आश्रम में मूत्र का एक पात्र बेमन से उठा कर रखा तो गांधी जी नाराज हो गए। उन्होंने उलाहना दिया। दोनों में झगड़ा हो गया। गांधीजी कस्तूरबा का हाथ पकड़कर उन्हें घर के बाहर निकालने लगे। बाद में उन्हें बहुत अफसोस हुआ। गांधी जी ने इसका जिक्र अपनी आत्मकथा में भी किया है-
‘मैं उस समय भगवान को भूल बैठा था। मुझमें दया का लेश भी नहीं रह गया था। मैंने उसका हाथ पकड़ा। सीढ़ियों के सामने बाहर निकलने का दरवाजा था। मैं उस असहाय अबला को पकड़ कर दरवाजे तक खींच ले गया। दरवाजा आधा खोला। कस्तूरबाई की आंखों से गंगा-यमुना बह रही थी। वह बोली, ‘तुम्हें तो शरम नहीं है। लेकिन मुझे है। में बाहर निकलकर कहां जा सकती हूं? यहां मेरे मां-बाप नहीं हैं कि उनके घर चली जाऊं। मैं तुम्हारी पत्नी हूं, इसलिए मुझे तुम्हारी डांट-फटकार सहनी ही होगी। अब शरमाओ और दरवाजा बंद करो। कोई देखेगा तो दो में से एक भी शोभा नहीं रहेगी। मैंने मुंह तो लाल रखा, पर शर्मिंदा जरूर हुआ। दरवाजा बंद कर दिया। यदि पत्नी मुझे छोड़ नहीं सकती थी तो मैं भी उसे छोड़कर कहां जा सकता था? हमारे बीच झगड़े तो बहुत हुए हैं, पर परिणाम सदा शुभ ही रहा है। पत्नी ने अपनी अद्भुत सहनशक्ति द्वारा विजय प्राप्त की है। मैं यह वर्णन आज तटस्थ भाव से कर सकता हूं, क्योंकि यह घटना हमारे बीते युग की है। आज मैं मोहांध पति नहीं हूं। शिक्षक नहीं हूं। कस्तूरबाई चाहे तो मुझे आज धमका सकती है। आज हम परखे हुए मित्र हैं, एक-दूसरे के प्रति निर्विकार बनकर रहते हैं। कस्तूरबाई आज मेरी बीमारी में किसी बदले की इच्छा रखे बिना मेरी चाकरी करने वाली सेविका है।’

बा की मृत्यु के बाद बापू बहुत अकेले और उदास हो गए थे। यह दुख अपने दोनों छोटे बेटों से साझा करते हैं-
‘रामदास जब पहुंचे, चिता जल रही थी। रामदास अपने दुख-सुख के बारे में मुखर नहीं थे। वह पिता को प्रणाम करके चिता के पास धरती पर बैठे रहे। उस रात रामदास और देवदास को महल (आगा खां पैलेस) में रहने की अनुमति दे दी गई थी। वे दोनों भाई बापू के पास बैठे, तो आंखों से टप-टप आंसू झरने लगे। बापू ने उनके कंधों पर हाथ रखे, ‘मेरा तो बासठ साल का साथ था। कभी-कभी सोचता, दोनों साथ जाएं... पर मृत्यु अपनी गोपनीयता बनाए रखने के लिए हर एक को अलग-अलग ले जाती है। मैंने यही प्रार्थना की थी कि अगर ऐसा न हो तो पहले कस्तूर को बुला लेना। मैं रह लूंगा, मेरे जैसे आदमी के साथ रहने के बाद वह किसके साथ रह पाएगी...?’ थोड़ी देर बाद बोले, ‘काम तो थकाता है सो थकाता है, दुख और बिछुड़ना भी थका-थकाकर मार डालता है। जाओ अब आराम करो...।’
(गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘बा’ से उद्धृत)


हिन्दुस्तान के रविवारीय परिशिष्ट ‘फुरसत’ में 1 अक्तूबर 2017 को प्रकाशित

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