रुख: सबके लिए नहीं है यह कहानी
राजीव रंजन
फिल्म: रुख
ढाई स्टार (2.5 स्टार)
निर्देशक: अतनु मुखर्जी
निर्माता: मनीष मुंद्रा
कलाकार: मनोज बाजपेयी, आदर्श गौरव, स्मिता तांबे, कुमुद मिश्रा
संगीत: अमित त्रिवेदी
एक बात पहले ही साफ कर देनी जरूरी है कि ‘रुख’ वीकेंड पर एन्जॉय करने वाला सिनेमा नहीं है। जिस तरीके से इसे बनाया गया है, उससे जान पड़ता है कि इसे मास के लिए ध्यान में रख कर नहीं बनाया गया है। हालांकि फिल्म की जो कहानी है, उसमें तेज गति वाली एक सस्पेंस थ्रिलर की तमाम संभावनाएं मौजूद थीं, साथ ही भावनापूर्ण दृश्यों की भी काफी संभावना थी, लेकिन लेखक-निर्देशक अतनु मुखर्जी ने इस कहानी को अपने तरीके से कहने की कोशिश की है। यह फिल्म दिखाती है कि अपने परिवार के भविष्य की चिंता में कोई व्यक्ति कहां तक जा सकता है!
दिवाकर माथुर (मनोज बाजपेयी) मुंबई में एक चमड़े का कारखाना चलाता है। उसकी फैक्ट्री संकट में है। वह अपने पार्टनर रोबिन (कुमुद मिश्रा) से पैसों का इंतजाम करने के लिए कहता है, लेकिन रोबिन उसे उधार लेकर काम चलाने को कहता है और कुछ समय बाद पैसों का बंदोबस्त करने का आश्वासन देता है। दिवाकर कहीं से उधार लेकर फैक्ट्री के कर्मचारियों और दूसरे बकायों का भुगतान करता है। अपने पार्टनर रोबिन के कामों की वजह से दिवाकर भारी मुसीबत में आ जाता है। दरअसल रोबिन सउदी सिंडिकेट के जरिये काले धन को सफेद करने का काम करता है, जिसके बारे दिवाकर को कोई पुख्ता जानकारी नहीं होती। इस मनी लॉन्ड्रिंग की जांच सीबीआई के पास है, वह दिवाकर से पूछताछ करने पहुंचती है और फैक्ट्री को बंद करने का आदेश देती है। दिवाकर पर दोहरी मुसीबत आ जाती है। सीबीआई जांच की वजह से फैक्ट्री पर तो ताला लग ही जाता है, वादे के मुताबिक रोबिन समय पर पैसों का इंतजाम करने की बजाय हाथ खड़े कर देता है।
दिवाकर इन हालात में घर से कई-कई दिन गायब रहता है। उसकी पत्नी नंदिनी (स्मिता ताम्बे) को इन सब बातों की थोड़ी भनक लगती है और वह मामले के बारे में पूछती है। दिवाकर उसे सब कुछ ठीक करने का भरोसा देता है। एक दिन वह घर से निकल कर अपने पिता से मिलने जाता है, जो अल्जाइमर से पीड़ित हैं। दोनों शतरंज खेल रहे होते हैं कि दिवाकर अपने पिता से जाने की बात करता है। उसके पिता कहते हैं- अभी खत्म नहीं हुआ है। दिवाकर कहता है- फिर से शुरू करेंगे। जल्दी ही।
और फिर वापस लौटते समय एक ट्रक से उसकी कार की टक्कर हो जाती है। दिवाकर की वहीं मृत्यु हो जाती है। उसका बेटा ध्रुव (आदर्श गौरव) बोर्डिंग स्कूल पढ़ता है। तीन साल पहले उसने अपने मुंबई के स्कूल में अपने एक क्लासमेट की टांगों को बुरी तरह जख्मी कर दिया था। इस कारण उसे स्कूल से निकाल दिया गया और उसके पिता दिवाकर ने उसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया। पिता की मौत की खबर सुन जब ध्रुव वापस लौटता है तो उसे अपनी मां की चुप्पी बहुत असामान्य लगती है। उसे लगता है, उससे कुछ छिपाने की कोशिश की जा रही है। वह अपने तरीके से चीजों का पता लगाने की कोशिश करता है। उसे यह पता लगता है कि उसके पिता का पार्टनर रोबिन अपने पापों का ठीकरा उसके दिवंगत पिता के सिर फोड़ने की फिराक में है। एक दिन ध्रुव को यह यकीन हो जाता है कि उसके पिता का एक्सीडेंट नहीं मर्डर हुआ है। ...
मूल रूप से यह पिता-पुत्र के रिश्तों के साये में बुनी गई एक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म है। लेकिन करीब पौने दो घंटे की इस फिल्म की सबसे बड़ी दिक्कत है कि यह बहुत धीमी है। इंटरवल तक फिल्म का कथ्य स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं हो पाता। यह भ्रम दिमाग में रह-रह कर दस्तक देता रहता है कि आखिर निर्देशक कहना क्या चाहते हैं। हालांकि इंटरवल के बाद चीजें पटरी पर लौटती हैं। क्लाईमैक्स में बहुत सारी बातें साफ हो जाती हैं। सुजॉय घोष निर्देशित और विद्या बालन स्टारर ‘कहानी’ में भी सारे राज अंत में ही खुलते हैं, वैसे ही इस फिल्म में भी है। पर ‘कहानी’ में जो रोचकता थी, वह ‘रुख’ में नदारद है। पूरे फिल्म में माहौल बहुत बोझिल-सा है। प्रस्तुतीकरण और पटकथा ठीक होते हुए भी फिल्म बहुत असर नहीं छोड़ पाती।
इस फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है कलाकारों का अभिनय। मनोज वाजपेयी अपनी आंखों और चेहरे के एक्सप्रेशन से बहुत कुछ कह देते हैं। कहने को तो इस फिल्म में उनकी अतिथि भूमिका है, लेकिन वह पूरी फिल्म में छाये हुए हैं। उनका अभिनय इतना गहन (इंटेंस) है कि वह कई सारे दृश्यों में अपनी अनुपस्थिति के बाजूद वह अपने अभिनय के असर की बदौलत पूरे फिल्म के माहौल को प्रभावित करते नजर आते हैं। उनके बेटे ध्रुव के रूप में आदर्श गौरव अभिनय अभिनय से प्रभावित करते हैं। मॉम में भी एक किशोर के नकारात्मक किरदार में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी थी, लेकिन इस फिल्म में वह असरदार नजर आते हैं, क्योंकि इसमें वह मुख्य किरदार में हैं। नंदिनी के रूप में स्मिता ताम्बे ने भी अपने किरदार की मांग को पूरा किया है। अपने चेहरे से वह सस्पेंस पैदा करने में वह कामयाब रही हैं। कुमुद मिश्रा अपने किरदार में हमेशा की तरह फिट हैं। जयंत के रूप में शुभ्रज्योति बरत अपनी छाप छोड़ते हैं। बाकी कलाकार भी ठीक हैं। फिल्म का गीत-संगीत, सिनमेटोग्राफी इसके मूड के हिसाब से ठीक है।
अगर आप सिनेमा को मसाला मनोरंजन नहीं मानते हैं तो ‘रुख’ के लिए सिनेमाहॉल का रुख कर सकते हैं।
(दैनिक "हिंदुस्तान" में 28 अक्तूबर को प्रकाशित)
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