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रुख: सबके लिए नहीं है यह कहानी

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राजीव रंजन फिल्म: रुख ढाई स्टार (2.5 स्टार) निर्देशक: अतनु मुखर्जी निर्माता: मनीष मुंद्रा कलाकार: मनोज बाजपेयी, आदर्श गौरव, स्मिता तांबे, कुमुद मिश्रा संगीत: अमित त्रिवेदी एक बात पहले ही साफ कर देनी जरूरी है कि ‘रुख’ वीकेंड पर एन्जॉय करने वाला सिनेमा नहीं है। जिस तरीके से इसे बनाया गया है, उससे जान पड़ता है कि इसे मास के लिए ध्यान में रख कर नहीं बनाया गया है। हालांकि फिल्म की जो कहानी है, उसमें तेज गति वाली एक सस्पेंस थ्रिलर की तमाम संभावनाएं मौजूद थीं, साथ ही भावनापूर्ण दृश्यों की भी काफी संभावना थी, लेकिन लेखक-निर्देशक अतनु मुखर्जी ने इस कहानी को अपने तरीके से कहने की कोशिश की है। यह फिल्म दिखाती है कि अपने परिवार के भविष्य की चिंता में कोई व्यक्ति कहां तक जा सकता है! दिवाकर माथुर (मनोज बाजपेयी) मुंबई में एक चमड़े का कारखाना चलाता है। उसकी फैक्ट्री संकट में है। वह अपने पार्टनर रोबिन (कुमुद मिश्रा) से पैसों का इंतजाम करने के लिए कहता है, लेकिन रोबिन उसे उधार लेकर काम चलाने को कहता है और कुछ समय बाद पैसों का बंदोबस्त करने का आश्वासन देता है। दिवाकर कहीं से उधार लेकर फैक्ट्री

जय हो छठी मैया। जय हो सुरुज देव।

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राजीव रंजन जय हो छठी मैया। जय हो सुरुज देव। दुनिया भर के सभी त्योहार लोक पर्व होते हैं, क्योंकि बिना लोक के धर्म की रक्षा नहीं हो सकती और बिना धर्म के लोक भी रक्षित नहीं हो सकता। हमारे यहां कहा भी गया है- ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’ तो हर पर्व में शास्त्र के अनुशासन के साथ लोक तत्त्व भी सहज स्वाभाविक रूप से घुला होता है। लोक को धर्म से और धर्म को लोक से अलग नहीं किया जा सकता। शास्त्र सम्मत पर्वों में भी हर युग अपनी अनुकूलताओं का तत्त्व जोड़ कर पर्व को युगानुकूल और युग को धर्मानुकूल बना लेता है। छठ भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन इसे हम पुरबिया लोग ‘लोक आस्था का महापर्व’ कहते और मानते हैं। इसे हमारी भावनात्मक तरलता कहा जा सकता है। लेकिन यह सिर्फ पुरबिया लोक की भावुकता नहीं है। वास्तव में इस लोक महापर्व में शास्त्र के अनुशासन के साथ लोक की भावना का जो दिव्य प्रस्फुटन देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। जब असंख्य व्रती अपने परिवार के साथ दौरा लेकर छठ घाट की ओर प्रस्थान करते हैं और एक साथ पहले अस्ताचलगामी भगवान सूर्य और फिर उदित होते सूर्य देव को एक साथ अघ्र्य देते हैं तो ऋग्वेद का यह मं

बा के बिना अधूरे थे बापू

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राजीव रंजन ‘बा के बिना जीने की आदत डालूंगा...।’ दोनों भाइयों की हिचकी बंध गई। बापू ने हाथ से जाने का इशारा किया।’ (गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘बा’ से उद्धृत) ‘बापू’ में ‘बा’ समाहित है, यह सत्य है और यह भी उतना ही सत्य है कि ‘बा’ के बगैर ‘बापू’ भी अधूरे हैं। दोनों के 62 सालों के दाम्पत्य पर नजर डालें तो यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि ‘बापू’ में अगर ‘बा’ नहीं होतीं तो शायद वह मोहनदास से महात्मा का सफर नहीं तय कर पाते। 13 वर्ष की कच्ची आयु से शुरू हुआ दोनों का संग साथ 1944 में बा की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ। यह एक ऐसा दाम्पत्य जीवन था, जो जीवन में आए तमाम झंझावातों के बीच टिका रहा। मात्र टिका नहीं रहा, बल्कि हर कठिनाई के बाद और अटूट बनता गया। यह दाम्पत्य पत्नी का अपने पति के लक्ष्यों में खुद को समाहित कर लेने की प्रेरक गाथा है तो और अपनी पति द्वारा अपनी पत्नी को वास्तविक अर्थों में सहचर मानने की दास्तान है। दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। निजी और सार्वजनिक जीवन दोनों में। दोनों का दाम्पत्य जीवन आज की पीढ़ी के लिए भी उतना प्रेरक और प्रासंगिक है, जितना आज से एक शताब्दी पहले था। बा ने बापू के ल