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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फिल्म ठाकरे की समीक्षा

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बाल ठाकरे के जीवन नहीं राजनीतिक जीवन की तस्वीर राजीव रंजन कलाकार: नवाजुद्दीन सिद्दीकी ,  अमृता राव ,  राजेश खेड़ा निर्देशक: अभिजीत पनसे निर्माता: संजय राऊत दो स्टार ( 2  स्टार) सबसे पहली बात  ‘ ठाकरे ’  को बायोपिक कहना पूरी तरह सही नहीं होगा ,  क्योंकि यह फिल्म बाल केशव ठाकरे उर्फ बालासाहेब ठाकरे के जीवन का नहीं ,  उनके राजनीतिक जीवन की कहानी कहती है। दूसरी बात ,  फिल्म के उद्देश्य और संदेश का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह बाल ठाकरे के सियासी सफर का चित्रण है और इसका निर्माण संजय राउत ने किया है ,  जो शिवसेना के सांसद व पार्टी के मुखपत्र  ‘ सामना ’  के संपादक हैं। आप भले ही बाल ठाकरे की राजनीतिक शैली और उनके राजनैतिक विचारों के विरोधी हों ,  लेकिन इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि उन्होंने अपने दौर की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी है। उनके विचारों और कार्यशैली में हमेशा एक स्पष्टता रहती थी। चाहे वह लोकतंत्र के प्रति उनका व्यंग्य भाव और तानाशाही तौर-तरीकों के प्रति लगाव हो ,  या फिर आपराधिक तत्त्वों को अपनी पार्टी में बनाए रखने का तर्क। एक कार्टूनिस्ट से लेकर अपने दौर मे

फिल्म वाय चीट इंडिया की समीक्षा

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शिक्षा के कारोबार का काला सच राजीव रंजन कलाकार: इमरान हाशमी ,  श्रेया धन्वंतरी ,  मनुज शर्मा ,  स्निघदीप चटर्जी ,  नवल शुक्ला निर्देशक: सौमिक सेन स्टार:  2.5 ( ढाई स्टार) पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा क्षेत्र सबसे फायदेमंद व्यवसायों में से एक के रूप में उभरा है। हर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह पनपे कोचिंग संस्थान इसकी गवाही देते हैं। लेकिन मेडिकल ,  इंजीनियरिंग ,  एमबीए संस्थानों में पिछले दरवाजे से दाखिले का कारोबार कोचिंग कारोबार से भी बड़ा है। एक-एक सीट के लिए अमीर लोग करोड़ रुपये देने को तैयार रहते हैं ,  ताकि उनकी नाकारा संतानें ऐसे ही किसी संस्थान में दाखिल हो जाएं। इस काम में उनकी सहायता करते हैं शिक्षा माफिया और उनके दलाल ,  जिनकी पहुंच हर जगह है। वे हर जगह पैसे फेंक कर ऐसा करते हैं और खुद मोटा पैसा बनाते हैं। शिक्षा क्षेत्र में सक्रिय दलाल इंजीनियरिंग ,  मेडिकल ,  एमबीए व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने वाले मेधावी छात्रों पर नजर गड़ाए रहते हैं। वे मध्यमवर्ग की मजबूरियों और महत्वाकांक्षाओं का फायदा उठा कर ऐसे छात्रों को जाल में फांस लेते हैं। यह गड़बड़ घोटाला को

‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर की समीक्षा’

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एक नई परम्परा की शुरुआत! राजीव रंजन कलाकार: अनुपम खेर ,  अक्षय खन्ना ,  सुजेन बर्नर्ट ,  विपिन शर्मा ,  अर्जुन माथुर ,  अहाना कुमरा निर्देशक: विजय रत्नाकर गुट्टे ढाई स्टार ( 2.5  स्टार) फिल्म  ‘ द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ’  में संजय बारु बने अक्षय खन्ना डॉ. मनमोहन सिंह बने अनुपम खेर से कहते हैं-  ‘ सर मैं सच लिखना चाहता हूं। मेरा और आपका सच। सच के कई पहलू होते हैं और मैं तो ये भी नहीं जानता कि सच के कितने पहलू होते हैं। ’  मनमोहन सिंह पूछते हैं-  ‘ कड़वा सच भी ?’  संजय बारु सहमति में सिर हिलाते हैं। फिर मनमोहन सिंह इसके जवाब में ना तो  ‘ न ’  कहते हैं और ना  ‘ हां ’ । लिहाजा यह तय करना मुश्किल है कि फिल्म में दिखाया गया  ‘ सच ’  मनमोहन सिंह का भी है या फिर सिर्फ संजय बारु का! दरअसल आज के समय में सच के साथ यह विडंबना है कि वह पूरा का पूरा एक साथ सामने नहीं आता। वह टुकड़ों में आता है ,  अलग-अलग तरफ से आता है और उसे बयां करने वाले की सुविधा के साथ आता है ,  जिसे सुनने वाले भी अपनी सुविधा  के अनुसार ग्रहण करते हैं। सच की हालत  ‘ अंधों के हाथी ’  जैसी हो गई है। जिस अंधे के

अभिनय को देखो, चेहरा न देखो

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राजीव रंजन मायानगरी की मायावी दुनिया अब अपना चेहरा बदल रही है। इस मायावी दुनिया के द्वार पर यथार्थ पिछले कुछ सालों से लगातार दस्तक हो रही थी। ये दस्तक उन कलाकारों, फिल्मकारों की थी, जो इस चकाचौंध भरी नगरी के बने-बनाए खांचों में फिट नहीं होते थे, लेकिन उनके पास एक अलग शैली थी, कुछ अलग-सी कहानियां थीं। वह दस्तक मायानगरी के अंदर सुनी तो जा रही थी, लेकिन उसके पट नहीं खुल रहे थे। हां, 2017 में इस दस्तक से द्वार की सांकल जरूर खुल गई थी और ‘फुकरे रिटन्र्स’, ‘न्यूटन’, शुभ मंगल सावधान, बरेली की बर्फी, लिपस्टिक अंडर माई बुर्का जैसी फिल्में न सिर्फ आलोचकों द्वारा सराही गईं, बल्कि व्यावसायिक रूप से भी हिट रहीं। इनमें काम करने वाले कलाकार लोगों के जेहन में उतरने लगे। इन फिल्मों के निर्देशकों को लोग जानने लगे। वर्ष 2018 ने बाकी का काम पूरा कर दिया और दरवाजे को पूरी तरह खोल दिया। अगर आप इस साल की फिल्मों और उनमें का करने वाले कलाकारों पर नजर डालें तो एक नया-सा कोलाज दिखाई देगा। उस कोलाज में स्टारों के चेहरे इक्का-दुक्का ही नजर आएंगे। उस कोलाज में ऐसे चेहरे नजर आएंगे, जिनकी पहचान उनकी सूरत नहीं,

गुदड़ी के लाल कादर खान

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राजीव रंजन करीब  300  से ज्यादा फिल्मों में अभिनय करने और  250  से ज्यादा फिल्मों में संवाद लिखने वाले कादर खान की जिंदगी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।  ‘ फर्श से अर्श ’   पर पहुंचने की उनकी कहानी में इतने उतार - चढ़ाव है कि उस पर एक प्रेरक और रोचक फिल्म बन जाए। एक समय ऐसा भी था कि उनका रुतबा फिल्म के हीरो से ज्यादा हुआ करता था। निर्माता - निर्देशक उन्हें अपनी फिल्मों में लेने और संवाद लिखवाने के लिए इंतजार करते थे। उन्होंने अपने संवादों से  80  और  90  के दशक में फिल्मों की भाषा ही बदल दी। उनकी भाषा वैसी ही भाषा थी ,  जो आम आदमी बोलता है ,  समझता है ,  लेकिन उसमें कई बार दार्शनिकों वाली गहराई होती थी। हालांकि कई बार द्विअर्थी संवाद लिखने के कारण उनकी आलोचना भी हुई। बतौर अभिनेता आखिरी बार वह फिल्म  ‘ हो गया दिमाग का दही ’   में नजर आए थे। इसमें उनकी काफी छोटी भूमिका थी और उन्हें देख कर लगता था कि उनकी शारीरिक अवस्था ठीक नहीं है। कादर खान का जन्म अफगानिस्तान के काबुल में हुआ था। उनके पिता अब्दुल रहमान खान कंधार के थे और मां इकबाल बेगम पिशिन  ( अंग्रेजी राज में भारत का अंग )  स