फिल्म ठाकरे की समीक्षा
बाल ठाकरे के जीवन नहीं राजनीतिक जीवन की तस्वीर
राजीव रंजन
कलाकार: नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अमृता राव, राजेश खेड़ा
निर्देशक: अभिजीत पनसे
निर्माता: संजय राऊत
दो स्टार (2 स्टार)
सबसे पहली बात ‘ठाकरे’ को बायोपिक कहना पूरी तरह सही नहीं होगा, क्योंकि यह फिल्म बाल केशव ठाकरे उर्फ बालासाहेब ठाकरे के जीवन का नहीं, उनके राजनीतिक जीवन की कहानी कहती है। दूसरी बात, फिल्म के उद्देश्य और संदेश का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह बाल ठाकरे के सियासी सफर का चित्रण है और इसका निर्माण संजय राउत ने किया है, जो शिवसेना के सांसद व पार्टी के मुखपत्र ‘सामना’ के संपादक हैं।
आप भले ही बाल ठाकरे की राजनीतिक शैली और उनके राजनैतिक विचारों के विरोधी हों, लेकिन इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि उन्होंने अपने दौर की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी है। उनके विचारों और कार्यशैली में हमेशा एक स्पष्टता रहती थी। चाहे वह लोकतंत्र के प्रति उनका व्यंग्य भाव और तानाशाही तौर-तरीकों के प्रति लगाव हो, या फिर आपराधिक तत्त्वों को अपनी पार्टी में बनाए रखने का तर्क। एक कार्टूनिस्ट से लेकर अपने दौर में महाराष्ट्र के सबसे प्रभावशाली राजनीतिज्ञ के रूप में उनका सफर बहुत दिलचस्प है। यह फिल्म उसी सफर को दिखाती है।
फिल्म की शुरुआत बाबरी ढांचे के ध्वंस के मामले में बाल ठाकरे की लखनऊ की एक अदालत में पेशी से शुरू होती है। मामले की सुनवाई के बीच-बीच में फ्लैशबैक चलता है और कहानी आगे बढ़ती रहती है। महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुष’ की दयनीय हालत बालासाहेब ठाकरे को उनके लिए कुछ करने को प्रेरित करती है और वह फ्री प्रेस जर्नल की कार्टूनिस्ट की नौकरी छोड़ अपना व्यंग्य चित्र साप्ताहिक (कार्टून वीकली) शुरू करते हैं। फिर धीरे-धीरे वे मराठियों में लोकप्रिय होते जाते हैं और अंतत: ‘शिव सेना’ का जन्म होता है। मराठी मानुस के आत्मसम्मान की बहाली में पहली गाज गिरती है दक्षिण भारतीयों पर। फिर मराठी मानुस से ठाकरे हिन्दुत्व की राजनीति पर आ जाते हैं। फिल्म का अंत इसी नोट के साथ होता है।
फिल्म में बाल ठाकरे के राजनीतिक पहलुओं के साथ कुछ निजी पहलुओं और मानवीय पक्ष को भी दिखाया गया है। उनके राजनीतिक जीवन और निजी जीवन के कंट्रास्ट को भी यह फिल्म दर्शा पाने में सफल रही है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई से बाल ठाकरे के टकराव के दृश्य भी हैं। ऐसा कहा जाता है कि बाल ठाकरे को राजनीति में आगे बढ़ाने वाले महाराष्ट्र के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक थे। इस बात को भी फिल्म में दिखाया गया है। यह भी कहा जाता है कि एक समय मुंबई में समाजवादियों का वर्चस्व था, वे किसी भी समय मुंबई को ठप्प कर देने का माद्दा रखते थे। ठाकरे ने उनके वर्चस्व को समाप्त करने और उन्हें मुंबई में अप्रासंगिक बना देने का काम किया था। इस बात का जिक्र भी फिल्म में है।
फिल्म की गति पहले हाफ में ठीक है और इसमें आम आदमी की दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन दूसरे हाफ में यह डॉक्यूड्रामा बन जाती है। और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी दिक्कत है। ऐसा लगता है, जैसे हम शिवसेना के गठन और उसके मजबूत होने की घटनाओं व परिस्थितियों के बारे में कोई विजुअल आलेख पढ़ रहे हैं। फिल्म के संवाद अच्छे हैं और बाल ठाकरे के व्यक्तित्व को सफलता से बयां करते हैं। निर्देशक के रूप में अभिजीत पनसे ठीक हैं, लेकिन इसे वह और बेहतर तथा रोचक तरीके से पेश कर सकते थे। ‘ठाकरे’ एक फीचर फिल्म कम, डॉक्यूड्रामा ज्यादा लगती है।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी का गेटअप अच्छा है, लेकिन बाल ठाकरे की आवाज में जो एक पंच और ठसक थी, वह नवाज में नजर नहीं आती। वह एक अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन अब उनमें दोहराव नजर आने लगा है, खासकर संवाद अदायगी में। उनसे हमेशा बेहतर की उम्मीद रहती है, लेकिन इस फिल्म में वह उम्मीदों पर पूरी तरह खरे नहीं उतरे हैं। ठाकरे की पत्नी मीना ताई ठाकरे के रूप में अमृता राव अच्छी लगी हैं, हालांकि उनके दृश्य बहुत कम हैं। मोरारजी देसाई के रूप में राजेश खेड़ा का अभिनय अच्छा है। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट में दम नहीं है, जो फिल्म का एक और नकारात्मक पक्ष है। गीत-संगीत का फिल्म में कुछ खास स्कोप नहीं था, इसलिए उस पर ध्यान जाता भी नहीं है।
कुल मिलाकर, जिन्हें शिवसेना का इतिहास जानने में दिलचस्पी हो, उनके लिए यह फिल्म ठीक है। जिन्हें राजनीति में दिलचस्पी है, वे भी इसे देख सकते हैं। लेकिन जिन्हें इन दोनों चीजों में रुचि नहीं है, वे बोर हो जाएंगे। मनोरंजन इस फिल्म में नहीं है, शायद ये निर्माता और निर्देशक का उद्देश्य भी नहीं था।
(livehindustan.com में 25 जनवरी और ‘हिन्दुस्तान’ में 26 जनवरी, 2019 को संक्षिप्त अंश प्रकाशित)
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