‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर की समीक्षा’
एक नई परम्परा की शुरुआत!
राजीव रंजन
कलाकार: अनुपम खेर, अक्षय खन्ना, सुजेन बर्नर्ट, विपिन शर्मा, अर्जुन माथुर, अहाना कुमरा
निर्देशक: विजय रत्नाकर गुट्टे
ढाई स्टार (2.5 स्टार)
फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में संजय बारु बने अक्षय खन्ना डॉ. मनमोहन सिंह बने अनुपम खेर से कहते हैं- ‘सर मैं सच लिखना चाहता हूं। मेरा और आपका सच। सच के कई पहलू होते हैं और मैं तो ये भी नहीं जानता कि सच के कितने पहलू होते हैं।’ मनमोहन सिंह पूछते हैं- ‘कड़वा सच भी?’ संजय बारु सहमति में सिर हिलाते हैं। फिर मनमोहन सिंह इसके जवाब में ना तो ‘न’ कहते हैं और ना ‘हां’। लिहाजा यह तय करना मुश्किल है कि फिल्म में दिखाया गया ‘सच’ मनमोहन सिंह का भी है या फिर सिर्फ संजय बारु का!
दरअसल आज के समय में सच के साथ यह विडंबना है कि वह पूरा का पूरा एक साथ सामने नहीं आता। वह टुकड़ों में आता है, अलग-अलग तरफ से आता है और उसे बयां करने वाले की सुविधा के साथ आता है, जिसे सुनने वाले भी अपनी सुविधा के अनुसार ग्रहण करते हैं। सच की हालत ‘अंधों के हाथी’ जैसी हो गई है। जिस अंधे के हाथ में हाथी का जो हिस्सा आया, उसने उसे ही हाथी मान लिया, लेकिन वह पूरा सच नहीं होता। हालांकि इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पूरा न सही, पर सच का एक हिस्सा तो वह भी है ही।
भारत में राजनीतिक फिल्मों का चलन न के बराबर रहा है। दरअसल इसमें कई तरह के जोखिम होते हैं, जो फिल्मकार उठाना नहीं चाहते। अगर कभी कोशिश की भी गई, तो वह सफल नहीं रही। राजनीतिक दबाव के कारण फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ कभी रिलीज ही नहीं हो पाई। पिछले साल आई ‘इंदु सरकार’ का हश्र बॉक्स ऑफिस पर अच्छा नहीं रहा। इस लिहाज से ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ बनाने वालों की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने वास्तविक राजनीतिक किरदारों के साथ फिल्म बनाने की एक परम्परा की शुरुआत की है। हो सकता है, इससे आने वाले समय में कुछ और फिल्मकार ऐसी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित हों।
अब बात फिल्म की। यह फिल्म प्रसिद्ध संपादक और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के 2004 से 2008 तक मीडिया सलाहकार रहे संजय बारु की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर: मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ पर आधारित है। यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री की पार्टी अध्यक्ष के दबाव में काम करने वाली छवि पेश करती है, लेकिन कहीं भी उनकी देश के प्रति निष्ठा, उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं खड़े करती। यह फिल्म उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करती है, जो महत्वपूर्ण मौकों पर स्टैंड लेने में चूक जाता है, लेकिन कहीं भी उनकी क्षमता, उनकी योग्यता पर सवालिया निशान नहीं लगाती, बल्कि उनके प्रति सहानुभूति पैदा करती है। उन्हें ‘विक्टिम’ के रूप में पेश करती है। उससे भी ज्यादा यह फिल्म संजय बारु के राजनीतिक दबावों के आगे घुटने नहीं टेकने वाले पत्रकार की छवि पेश करती है। यह फिल्म बारु को किसी राजनीतिक दल नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री का पक्ष पेश करने वाले सलाहकार के रूप में पेश करती है। इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ती है।
फिल्म की पटकथा ‘मेहनत’ से लिखी गई है, हालांकि कई जगह इसमें नाटकीयता साफ नजर आती है। राजनीतिक गलियारों में होने वाले सत्ता-संघर्ष को यह फिल्म ठीकठाक तरीके से दिखाने में सफल रही है। फिल्म में कई जगह वास्तविक फुटेज को इस्तेमाल किया गया है। वो फुटेज बहुत असरदार नहीं लगते, लेकिन उनके साथ अक्षय कुमार की टिप्पणियां उन्हें नीरस होने से बचा लेती हैं। फिल्म में ज्यादातर घटनाओं और पात्रों को केवल संदर्भ के तौर पर रखा गया है, लिहाजा वे ज्यादा असर नहीं डाल पाते। ऐसा लगता है कि निर्देशक और लेखकों ने यह मान कर पटकथा तैयार की है कि भारतीय जनमानस उन घटनाओं और पात्रों से बहुत अच्छी तरह परिचित है। फिल्म की लंबाई भी कम (करीब 1 घंटे 50 मिनट) रखी गई है, ताकि यह नीरस न हो जाए। फिल्म में ऐसी कोई बात भी नहीं दिखाई गई है, जिसे राजनीति में थोड़ी भी रुचि रखने वाले न जानते हों। लेकिन कुल मिलाकर बतौर निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे ‘अपनी बात’ कहने में सफल रहे हैं। फिल्म भले ही मनमोहन सिंह के खिलाफ नहीं जाती है, लेकिन उनकी पार्टी के खिलाफ जरूर जाती है। फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं, जो इसकी पुष्टि करते हैं।
बतौर अभिनेता यह अनुपम खेर के करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। उन्होंने मनमोहन सिंह की देह-भाषा, उनके बोलने के अंदाज, उनके व्यक्तित्व को काफी हद तक पेश करने में सफलता पाई है। खेर ने पूर्व प्रधानमंत्री की विवशता, उनकी मनुष्यता को बहुत प्रभावी तरीके से पेश किया है। निस्संदेह वह मनमोहन सिंह लगे हैं। अक्षय खन्ना अच्छे अभिनेता हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपनी साख को बनाए रखा है, लेकिन उनके किरदार का गेटअप कहीं भी संजय बारु की याद नहीं दिलाता और इसमें नाटकीयता भी बहुत है। लेकिन इसका एक पक्ष यह है कि ये नाटकीयता फिल्म को उबाऊ होने से बचाती है। सोनिया गांधी के किरदार में सुजेन बर्नर्ट अच्छी लगी हैं और उनका अभिनय भी अच्छा है। खासकर, उनकी संवाद अदायगी प्रभावित करती है। अहमद पटेल की भूमिका में विपिन शर्मा जमे हैं। उनका अभिनय अपने किरदार की जरूरतों को पूरा करता है। राहुल गांधी के किरदार में अर्जुन माथुर नहीं जमे हैं। प्रियंका गांधी बनीं अहाना कुमरा की भूमिका इतनी छोटी है कि उसमें कोई स्कोप ही नहीं था। हां उनका गेटअप अच्छा है। बाकी कलाकारों की भूमिकाएं भी बहुत छोटी हैं और सिर्फ संदर्भ के लिए हैं।
जिन्हें राजनीतिक विमर्श में रुचि है, उनके लिहाज से तो यह फिल्म ठीक है, उन्हें बांधे रखने में सक्षम है। यह उनके बीच यह बहस का मुद्दा बन सकती है। कोई इससे सहमत हो सकता है, कोई असहमत। और हां, जिन्हें राजनीति में रुचि नहीं है, उन्हें फिल्म में बहुत मजा नहीं आएगा।
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