अभिनय को देखो, चेहरा न देखो

राजीव रंजन

मायानगरी की मायावी दुनिया अब अपना चेहरा बदल रही है। इस मायावी दुनिया के द्वार पर यथार्थ पिछले कुछ सालों से लगातार दस्तक हो रही थी। ये दस्तक उन कलाकारों, फिल्मकारों की थी, जो इस चकाचौंध भरी नगरी के बने-बनाए खांचों में फिट नहीं होते थे, लेकिन उनके पास एक अलग शैली थी, कुछ अलग-सी कहानियां थीं। वह दस्तक मायानगरी के अंदर सुनी तो जा रही थी, लेकिन उसके पट नहीं खुल रहे थे। हां, 2017 में इस दस्तक से द्वार की सांकल जरूर खुल गई थी और ‘फुकरे रिटन्र्स’, ‘न्यूटन’, शुभ मंगल सावधान, बरेली की बर्फी, लिपस्टिक अंडर माई बुर्का जैसी फिल्में न सिर्फ आलोचकों द्वारा सराही गईं, बल्कि व्यावसायिक रूप से भी हिट रहीं। इनमें काम करने वाले कलाकार लोगों के जेहन में उतरने लगे। इन फिल्मों के निर्देशकों को लोग जानने लगे।
वर्ष 2018 ने बाकी का काम पूरा कर दिया और दरवाजे को पूरी तरह खोल दिया। अगर आप इस साल की फिल्मों और उनमें का करने वाले कलाकारों पर नजर डालें तो एक नया-सा कोलाज दिखाई देगा। उस कोलाज में स्टारों के चेहरे इक्का-दुक्का ही नजर आएंगे। उस कोलाज में ऐसे चेहरे नजर आएंगे, जिनकी पहचान उनकी सूरत नहीं, सीरत है। जिनकी पहचान ग्लैमर नहीं, अदाकारी है। यह बात सही है कि बॉलीवुड में आप स्टार संस्कृति को पूरी तरह खारिज नहीं कर सकते, लेकिन इस सच में यह पहलू भी जुड़ गया है कि प्रतिभा को खारिज नहीं किया जा सकता। प्रतिभा की भी कमर्शियल वैल्यू होती है और 2018 यह संदेश बड़े साफ शब्दों में दे गया है।
जब हम 2018 के हिन्दी फिल्मों की चर्चा करते हैं, तो उसमें आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, संजय मिश्रा, विक्की कौशल, विनीत कुमार सिंह, गजराज राव, तापसी पन्नू, राधिका आप्टे, राधिका मदान, रसिका दुग्गल, मिथिला पालकर और एक बड़े अंतराल पर बड़े पर्दे पर दिखीं नीना गुप्ता जैसे नाम बिना किसी प्रयास के जुबान पर आ जाते हैं। और अगर फिल्मों की चर्चा करते हैं, तो ‘बधाई हो’, ‘अंधा धुन’, ‘राजी’, ‘स्त्री’, ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’, ‘अक्टूबर’, ‘सुई धागा’, और ‘हिचकी’ के नाम पहले याद आते हैं। इन फिल्मों ने शानदार सफलता हासिल की। इनमें से कई 100 करोड़ रुपये से ज्यादा कमाने में कामयाब रहीं। इन कलाकारों, फिल्मों व इनके निर्देशकों में एक खास समानता है। इनके साथ ‘ग्लैमर’ शब्द नहीं जुड़ा है, जो पहले बॉलीवुड के लिए अपरिहार्य तत्व माना जाता था।
बिहार के एक गांव से आने वाले, हर मंच पर साधारण पोशाक में, गले में गमछा लपेटे नजर आने वाले पंकज त्रिपाठी को देख कर क्या कहा जा सकता है कि वे बॉलीवुड का एक स्थापित नाम बन चुके हैं! उस बॉलीवुड का, जहां सितारे अपनी बालकनी में भी बिना सज-धज और बनाव-सिंगार के नजर नहीं आते! अपने आस-पड़ोस के लड़के जैसे लगने वाले आयुष्मान खुराना दो सालों में लगातार चार हिट फिल्में दे चुके हैं और अलग-सी कहानी कहने की हिम्मत रखने वाले फिल्मकारों के वह पसंदीदा अभिनेता बन चुके हैं। राजकुमार राव जैसे एक साधारण-सी शक्ल-सूरत और कद-काठी वाले अभिनेता को फिल्मकार सिर्फ अभिनय क्षमता की वजह से तरजीह दे रहे हैं, यह भी कम हैरानी की बात नहीं है! आज वे रणवीर सिंह जैसे स्टार के साथ पॉपुलर अवॉर्ड समारोह में ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ की ट्रॉफी शेयर कर रहे हैं।
संजय मिश्रा को ध्यान में रख कर ‘अंग्रेजी में कहते हैं’ और ‘कड़वी हवा’ जैसी फिल्में लिखी जा रही हैं। विक्की कौशल ‘संजू’ में सपोर्टिंग एक्टर थे, लेकिन उनकी चर्चा फिल्म के हीरो रणबीर कपूर से जरा भी कम नहीं हुई। ‘राजी’ में छोटे-से रोल के बावजूद उन्होंने गहरी छाप छोड़ी और पारम्परिक हीरो की छवि से बिल्कुल अलग चेहरे-मोहरे वाले विक्की को लेकर ‘मनमर्जियां’ जैसी रोमांटिक फिल्म बनी। वर्षों से अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत गजराव राव को एक फिल्म अवॉर्ड में ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ के लिए नामित किया गया और उसी अवॉर्ड समारोह में वे ‘सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता’ भी बने। विनीत कुमार सिंह ‘मुक्काबाज’ में हीरो बन कर आए। फिल्म भले नहीं चली, लेकिन विनीत को सबने सराहा।
कार्तिक आर्यन को एक सुपरहिट फिल्म ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ ने स्टार बना दिया। यहां तक कि बॉलीवुड के परम्परागत हीरो वरुण धवन भी ‘अक्टूबर’ और ‘सुई धागा’ जैसी संजीदा और ऑफबीट फिल्में कर रहे हैं। और, इन फिल्मों के निर्देशक न तो संजय लीला भंसाली जैसे शोमैन हैं, न करण जौहर जैसे पॉपुलर कल्चर वाले निर्देशक, न ही हिट मशीन रोहित शेट्टी और न ही कॉमेडी के उस्ताद डेविड धवन, बल्कि इन फिल्मों को शूजीत सरकार तथा शरत कटारिया जैसे लोगों ने निर्देशित किया है, जो तड़क-भड़क से हट कर आम आदमी जिंदगी की कहानियां कहते हैं।
जब नायिकाओं पर नजर दौड़ाते हैं, तो कैटरीना कैफ जैसी स्टार हीरोइनों की जगह राधिका आप्टे का चेहरा सामने आता है, जो ‘अंधा धुन’ जैसी फिल्म में एक आम लड़की के किरदार में हैं। जो ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसी वेब सिरीज और डिजिटल मनोरंजन माध्यमों के लिए बनी ‘घोल’, ‘लस्ट स्टोरीज’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय से सुर्खियां बटोर रही हैं। स्वरा भास्कर भी एक ऐसी ही अभिनेत्री हैं, जो हीरोइन की परम्परागत छवि में फिट नहीं होने के बावजूद काम पा रही हैं और प्रशंसा भी। तापसी पन्नू ग्लैमर की बदौलत नहीं, बल्कि ‘मुल्क’, ‘मनमर्जियां’ और ‘सूरमा’ जैसी फिल्मों में अपने बेहतरीन अभिनय की बदौलत प्रशंसा पा रही हैं। ‘पटाखा’ की बड़की एक बिल्कुल अलग तरह की नायिका है। राधिका मदान इस किरदार को जीवंत कर देती हैं और एक प्रतिष्ठित फिल्म अवॉर्ड समारोह में जाह्नवी कपूर जैसी स्टार किड को पीछे छोड़ते हुए ‘सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री’ का अवॉर्ड भी जीत लेती हैं।
रसिका दुग्गल, मिथिला पालकर जैसी अभिनेत्रियां छोटी-छोटी भूमिकाओं से अपनी छाप छोड़ रही हैं। ‘मंटो’ भले व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही, लेकिन मंटो की पत्नी सफिया के रूप में वह प्रभावित करने में सफल रहीं। ‘कारवां’ में मिथिला पालकर एक बिंदास टीनेजर की भूमिका को एकदम सहज तरीके से जीती हैं। फिल्म भले कुछ खास नहीं चली, लेकिन मिथिला याद रहीं। वहीं बड़े-बड़े बैनरों में हीरोइन की भूमिका निभाने वाली अनुष्का शर्मा जैसी अभिनेत्री भी ‘सुई धागा’ जैसी फिल्म में बिना ग्लैमर वाली भूमिका निभा रही हैं।
तो, बदलाव तो दिख रहा है। ये बॉलीवुड के नए सितारे हैं, जो ग्लैमर से नहीं चमक रहे, बल्कि अपनी प्रतिभा, अपनी प्रयोगधर्मिता, कुछ अलग करने के अपने जज्बे से चमक रहे हैं।


(हिन्दुस्तान में 5 जनवरी, 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)

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