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मां

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राजीव रंजन जब भी थका हारा और टूटा हूं कभी अपने आप से लड़ते-लड़ते कभी दुनिया से लड़ते-लड़ते कभी अपनाकर ठुकराए जाने पर इसी शब्‍द ने सहारा दिया है मां तुम वर्णन से परे हो। जब कभी सपने देखते-देखते डर कर जागा हूं नींद से, अपने आपको असहाय पाया है जब जीवन का बोझ उठाने में एक भी कदम संभल कर चल पाने में तुम्‍ही ने मुझको सहारा दिया है मुझको टूटने से बचाया है मां तुम वर्णन से परे हो। तुम्‍हे याद नहीं करता मैं ऐसे जब अकेला पाता हूं अपने को इस दम घोंट देने वाली भीड़ में तब यही रिश्‍ता याद आता है तब यही एकमात्र सहारा बन कर आता है मां तुम वर्णन से परे हो। और अंत में, कुपुत्रो जायेत् क्‍वचिदपि कुमाता न भवति- शंकराचार्य के क्षमास्‍तोत्रं से (पुत्र, कुपुत्र हो सकता है, लेकिन माता, कभी कुमाता नहीं होती)