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आशीर्वाद

दुष्‍यंत कुमार की कविता जा तेरे स्‍वप्‍न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्‍द पृथ्‍वी पर चलना सीखें चांद तारों सी अप्राप्‍य ऊंचाइयों के लिए रूठना मचलना सीखें। हसें गाएं मुस्‍कराएं। हर दिये की रोशनी देखकर ललचाएं उंगली जलाएं। अपने पांव पर खड़े हों जा तेरे स्‍वप्‍न बड़े हों।

एक पियक्‍कड़ की डायरी

राजीव रंजन (14 नवंबर, 2005 की रात) यूं तो मैं एक पेशेवर पियक्‍कड़ नहीं हूं, लेकिन लक्षण बताते हैं कि मैं हो सकता हूं। दो दिन पहले मैंने ‘वोदका’ के तीन पेग लिए थे, लेकिन ‘कुछ’ हुआ नहीं। अगर साफ लफ्जों में कहूं तो तो नशा नहीं हुआ, बिल्‍कुल नहीं। हालांकि, मैंने एक साल बाद पी थी। नशे की तलब ने, या यूं कहें कि अपनी परेशानियों ने एक बार फिर पीने को मजबूर कर दिया। गो मेरी माली हालत ऐसी थी नहीं कि अपने मजबूरी के इस शौक को मैं पूरा कर सकूं। लेकिन कहते हैं न, ‘जहां चाह वहां राह।’ तो ऐसी सूरत निकल ही आई कि मैं अपना गुबार निकाल दूं। पिछले बार के अनुभव से सबक लेकर मैंने ‘वोदका’ से तोबा की और इस बार ‘रम’ लेकर आया। कुल चार जने थे और सामने था एक पूरा ‘फुल।’ एक बालक तो बीच में ही हाथ खड़े कर गया, बाकी बचे तीन। इसी बीच मैं सब्‍जी भी बनाता रहा क्‍योंकि तब होटल से सब्‍जी-रोटी खरीदकर खाने की हैसियत नहीं थी। मैं बेरोजगार हो गया था। आसपास के लोग भी कड़की में ही दिन गुजार रहे थे। दारू का जुगाड़ अखबार बेचकर किया था। वैसे भी रम बहुत ज्‍यादा महंगी नहीं आती। करीब डेढ़ सौ रुपए में काम हो गया था और अखबार बेचकर इतन

रूसी कवि अलेक्‍सांद्र पुश्किन की दो कविताएं

(1) मैंने प्‍यार किया है तुमको और बहुत संभव है अब भी मेरे दिल में इसी प्‍यार की सुलग रही हो चिंगारी किंतु प्‍यार मेरा तुमको और न अब बेचैन करेगा नहीं चाहता इस कारण ही अब तुम पर गुजरे भारी मैंने प्‍यार किया है तुमको मुक-मौन रह आस बिना हिचक-झिझक तो कभी जलन भी मेरे मन को दहकाए जैसे प्‍यार किया है मैंने सच्‍चे मन से डूब तुम्‍हे हे भगवान, दूसरा कोई प्‍यार तुम्‍हें यों कर पाए। (2) मुझे याद है अद्भुत क्षण जब तुम मेरे सम्‍मुख आई निर्मल, निश्‍छल रूप छटा सी जैसे उड़ती सी परछाईं घोर उदासी, गहन निराशा जब जीवन में कुहरा छाया मंद, मृदुल तेरा स्‍वर गूंजा मधुर रूप सपनों में आया बीते वर्ष बवंडर टूटे हुए तिरोहित स्‍वप्‍न सुहाने किसी परी सा रूप तुम्‍हारा भूला वाणी, स्‍वर पहचाने सूनेपन एकान्‍त तिमिर में बीते बोझिल दिन निस्‍सार बिना आस्‍‍था, बिना प्रेरणा रहे न आंसू, जीवन, प्‍यार पलक आत्‍मा ने फिर खोली फिर तुम मेरे सम्‍मुख आई निर्मल, निश्‍छल रूप छटा सी मानो उड़ती सी परछाई हृदय हर्ष से स्‍पंदित फिर से झंकृत अंतर-तार उसे आस्‍था, मिली प्रेरणा फिर से आंसू, जीवन, प्‍यार। (‘‘कादम्बिनी’’ के एक पुराने अंक से साभार)

धूमिल की कविता 'लोहे का स्‍वाद'

सुदामा पांडेय 'धूमिल' इसे देखो अक्षरों के बीच घिरे हुए आदमी को पढ़ो क्‍या तुमने सुना कि यह लोहे की आवाज है या मिट्टी में गिरे खून का रंग लोहे का स्‍वाद लोहार से मत पूछो घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।