शशि कपूर: सार्थक सिनेमा का मुहाफिज



राजीव रंजन

शशि कपूर भी कमाल के शख्‍स थे। अभिनेता के रूप में मुख्‍यधारा के सिनेमा से कमाया और निर्माता के रूप में ‘जुनून’, ‘उत्‍सव’, ’36 चौरंगी लेन’ और ‘कलयुग’ जैसी ऑफबीट फिल्‍मों में लगाया। ये एक कलाकार के रूप में उनकी संजीदगी को दिखाता है। उनकी मुख्‍य पहचान ठेठ मुंबइया हीरो के रूप में रही, जो हीरो के लिए बॉलीवुड के बनाए पैमाने पर खरा उतरता था। लेकिन उन्‍होंने अपने करियर के पीक पर ‘सिद्धार्थ’ जैसी बिल्‍कुल अलग तरह की फिल्‍म की। एक समय में ढेर सारी फिल्‍में करने की वजह से ‘टैक्‍सी’ का खिताब पाने वाले शशि कपूर थियेटर के लिए भी उतने ही संजीदा रहे। उन्‍होंने अपने पिता के ‘पृथ्‍वी थियेटर’ को पुनर्जीवित किया। एक सदाबहार अभिनेता और संजीदा शख्‍स शशि कपूर को सादर श्रद्धांजलि।



उनकी आंखों में एक चमक थी। वैसी ही चमक, जो झरने के शफ्फाक पानी पर सूर्य की किरणों से पैदा होती है। वह चमक उनके अभिनय में भी दिखाई देती थी। फिल्म ‘त्रिशूल’ में जब वह कहते हैं कि ‘मोहब्बत बड़े काम की चीज है’ तो वह महज अभिनय करते नहीं दिखते, बल्कि उन शब्दों को उनके संपूर्ण अर्थ के साथ जीते दिखाई देते हैं। भारतीय सिनेमा की ‘फस्र्ट फैमिली’ कहे जाने वाले कपूर परिवार से ताल्लुक रखने वाले बलबीर राज पृथ्वीराज कपूर यानी शशि कपूर ने इस भारी भरकम शब्द को कभी अपने जेहन पर हावी नहीं होने दिया। कपूर परिवार की विरासत को उन्होंने आगे बढ़ाने में कोई कोताही नहीं की, लेकिन परिवार की पंरपराओं को भी तोड़ा। कपूर परिवार में बेटियों के फिल्मों में जाने की परंपरा नहीं थी, लेकिन शशि कपूर ने अपनी बेटी संजना कपूर को यह मौका दिया।

साफगोई से बात करने के लिए उन्हें प्रयास नहीं करना पड़ता था। बात चाहे अपने जन्म की हो या फिल्मों में आने की, वह बड़ी सहजता से सारी बातें कह देते थे। उनके शब्दों में, ‘मैं आलसी अभिनेता था। मैं फिल्मों नहीं आना चाहता था। जब मुझे यह करना पड़ा तो मैंने अपना कर्तव्य निभाया और काम किया। मैं समय का पाबंद था, बहुत अनुशासित था, लेकिन इतवार को कभी काम नहीं किया। अपने परिवार के साथ समय बिताने के लिए छह हफ्तों का ब्रेक लिया। इस वजह से मैंने अपने कई निर्माताओं को खफा कर दिया, जिसमें मेरे भाई राज कूपर साहब भी शामिल थे। जब मैं ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की शूटिंग कर रहा था, तब मैंने इतवार, क्रिसमस, नए साल, दिवाली और होली के दिन काम करने से इनकार कर दिया था। हिंदी सिनेमा जगत में छुट्टी जैसी कोई चीज नहीं होती।’

शशि कपूर ने कई औसत, कई खराब और कई बेहतरीन फिल्मों में भी काम किया। उन्हें इस बात का कभी मुगालता नहीं रहा कि उनकी हर फिल्म ‘मील का पत्थर’ ही है। बतौर निर्माता उन्होंने हमेशा कुछ बेहतर और अलग करने की कोशिश की। उन्होंने 1978 में ‘जुनून’ का निर्माण किया, जो रस्किन बांड के अंग्रेजी उपन्यास ‘अ फ्लाइट ऑफ पिजंस’ पर आधारित थी। श्याम बेनगेल द्वारा निर्देशित इस फिल्म को ‘सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इस फिल्म के लिए गोविंद निहलानी को भी ‘सर्वश्रेष्ठ सिनमेटोग्राफी’ और हितेंद्र घोष को ‘सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी’ का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। इस फिल्म को कई फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले। इसके अलावा उन्होंने ‘कलयुग’, ‘36 चौरंगी लेन’, ‘उत्सव’ जैसी बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया। हालांकि ये फिल्में व्यावसायिक रूप से ज्यादा सफल नहीं रहीं और उन्हें काफी नुकसान सहना पड़ा।

वह ठेठ बॉलीवुड स्टाइल की फिल्में कर पैसा इकट्ठा करते थे और फिर अपने मन-मिजाज की फिल्मों का निर्माण करते थे। वह कई बार मजाक में कहते भी थे, ‘मैं शान जैसी फिल्मों से कमाता हूं और कलयुग जैसी फिल्मों में गंवा देता हूं।’ बतौर एक्टर भी उन्होंने कुछ बेहतरीन फिल्में दी हैं। उनका कहना था, ‘मुझे कई बेहतरीन भूमिकाएं मिलीं। जैसेकि कलयुग में। यह एक बहुत मुश्किल भूमिका और मुश्किल फिल्म थी। यह भी मेरे खाते में अनायास आ गई। यह भूमिका नसीरुद्दीन शाह के लिए थी। मेरे पास यह फिल्म अनायास ही आ गई।’

1960 के दशक की शुरुआत से अंतरराष्ट्रीय सिने फलक पर पहचान बनाने वाले शशि कपूर पहले भारतीय अभिनेता थे। इस शुरुआत का श्रेय उन्हें 1961 की फिल्म ‘द हाउसहोल्डर’ के जरिए मिला था। रूथ प्रवार झाबवाला के उपन्यास पर आधारित यही वह फिल्म थी, जिसके जरिए विश्व प्रसिद्ध सिने कंपनी मर्चेंट-आइवरी की शुरुआत हुई थी। भारत के फिल्म निर्माता इस्माइल मर्चेंट और ब्रिटिश निर्देशक जेम्स आइवरी ने इसके बाद कई ऑस्कर विजेता फिल्मों का निर्माण किया था। मर्चेंट-आइवरी को गठित करने का बहुत बड़ा श्रेय शशि कपूर को जाता है। रूथ झाबवाला इस टीम की चौथी सदस्य थीं। शशि कपूर ने ‘द हाउसहोल्डर’ के बाद मर्चेंट-आइवरी की कई फिल्मों में काम किया था। इस टीम के लिए उनकी अंतिम फिल्म ‘इन कस्टडी’ (मुहाफिज) थी, जो इस्माइल मर्चेंट द्वारा निर्देशित पहली फिल्म रही और इसके लिए शशि कपूर को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। ‘द हाउसहोल्डर’ का संगीत सत्यजीत राय ने दिया था।

शशि कपूर ने अपने जन्म के बारे में एक रोचक संस्मरण साझा किया था,‘मेरी मां मुझे ‘फ्लूकी’ कहती थीं, क्योंकि मेरे माता-पिता ने मेरे जन्म की कोई तैयारी नहीं की थी। राज कपूर और शम्मी जी के बीच में दो और बेटे हुए थे, जो छोटी उम्र में ही चल बसे थे। 1933 में मेरी बहन उर्मिला का जन्म हुआ और मेरी मां को लगा कि उनका परिवार पूरा हो गया है। लेकिन पांच वर्ष बाद उन्हें पता चला कि वह फिर गर्भवती हैं और यह जान कर वह अपने आप पर बहुत शर्मिंदा हुईं। उन्होंने मुझे बताया कि फिर वह जान-बूझ कर साइकिल से गिरीं, सीढ़ियों से गिरीं, कुनैन खाई, लेकिन जिद्दी शशि कपूर को दुनिया में आना ही था। लिहाजा मैं एक फ्लूक एक्टर, एक फ्लूक
स्टार और फ्लूक शख्स हूं, जो दुनिया में अनायास ही आ गया।’

शशि कपूर ने अपने हिस्से की खुशियां, अपने हिस्से के दुख, अपने हिस्से की कामयाबी और अपने हिस्से की असफलताएं बड़ी गरिमा के साथ झेलीं। मुंबइया मुख्यधारा सिनेमा में दशकों गुजारने के बावजूद शशि कपूर का संजीदा व सार्थक सिनेमा को प्रश्रय देने के पीछे के सच को समझना मुश्किल बिल्कुल नहीं हैं। उनकी शुरुआत पृथ्वी थियेटर्स से हुई, बाद में अपने ससुर ज्यॉफ्री केंडल की नाटक मंडली के साथ जुड़े, मर्चेंट आइवरी के जरिये उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। शशि कपूर का खुद को फ्लूक कहना बेशक उनकी चारित्रिक विनम्रता और उनका परिहास था, लेकिन सच यह है कि ‘फ्लूक’ से कोई शशि कपूर नहीं बन सकता।

(हिन्‍दुस्‍तान में 5 दिसंबर 2017 को प्रकाशित)
पोर्ट्रेट- मनोज सिन्‍हा

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