मैं ‘माइंडलेस सिनेमा’ नहीं बनाता: नीला माधब पांडा



नीला माधब पांडा एक ऐसे फिलमकार हैं, जो सिनेमा का उपयोग मुद्दे की बात उठाने के लिए करते हैं। चाहे पढ़ाई-लिखाई के महत्व को बताती ‘आई एम कलाम’ हो या फिर कन्या भ्रूण हत्या पर ‘जलपरी’ हो, अपनी हर फिल्म का उपयोग उन्होंने समाज के लिए जरूरी बात कहने में किया है। अब वह जलवायु परिवर्तन पर ‘कड़वी हवा’ लेकर आए हैं, जो इस विषय पर भारत की पहली हिंदी फिल्म है। उनसे राजीव रंजन की बातचीत:



‘कड़वी हवा’ क्या है? क्या यह केवल भारत में क्लाइमेट के बदलाव पर बात करती है या इसकी चिंता पूरी दुनिया को लेकर है?

चीजें बदल चुकी हैं। पूरी दुनिया का क्लाइमेट बदल चुका है और हमारा जीवन इससे प्रभावित हो रहा है। नवंबर खत्म होने को है और दिल्ली में अभी ठंड पूरी तरह शुरू नहीं हुई। इस फिल्म के जरिये हम किसी एक जगह की पृष्ठभूमि में पूरी दुनिया के बारे में बात कर रहे हैं। हमारी फिल्म की चिंता का विषय केवल भारत नहीं है, बल्कि हमारी चिंता पूरी दुनिया के संदर्भ में है।

आप 12 वर्ष पहले इस मुद्दे से जुड़ी एक डॉक्यूमेंटरी ‘क्लाइमेट्स फस्र्ट ऑरफान’ भी बना चुके हैं। क्या ‘कड़वी हवा’, ‘क्लाइमेट्स फस्र्ट ऑरफान’ का विस्तार है?

‘क्लाइमेट्स फस्र्ट ऑरफान’ डॉक्यूमेंटरी हमने एक सच्ची घटना पर बनाई थी। ‘कड़वी हवा’ एक फिक्शन है, जो क्लाइमेट में बदलाव की घटनाओं से प्रेरित है। आप कह सकते हैं कि ‘कड़वी हवा’, ‘क्लाइमेट्स फस्र्ट ऑरफान’ का एक तरीके से विस्तार है।

‘कड़वी हवा’ ऐसे समय में रिलीज हो रही है, जब पर्यावरण को लेकर चर्चा बहुत जोरों पर है। खासकर राजधानी दिल्ली सहित कई शहरों के आसमान में कई दिनों तक काली चादर-सी छाई रही और पर्यावरण की चिंता एकदम से सारी चर्चाओं के केंद्र में आ गई। इससे फिल्म को कितना फायदा होगा?
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिल्म ऐसे समय में रिलीज हो रही है। वैसे यह आज से नहीं शुरू हुआ है। बहुत पहले से शुरू हो चुका है और अब तो स्थिति बहुत खराब हो गई है। पूरी दुनिया में हालात बहुत खराब हैं। 1930 मे महात्मा गांधी ने कहा था हवा और पानी आदमी की सबसे प्राथमिक जरूरतें हैं और वे आदमी को मुफ्त मिलनी चाहिए। लेकिन आप देखिए कि आज लोग दोनों चीजें खरीदने को मजबूर हो रहे हैं। अब हमें साफ हवा-पानी के लिए एयर और वाटर फ्यूरिफायर लगाना पड़ रहा है। काली चादर की बात आपने ठीक कही। केवल दिल्ली ही नहीं, पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन से प्रभावित है। मुंबई और देश के कई हिस्सों में हर साल बाढ़ आ रही है, कई जगहों पर हर साल सूखा पड़ रहा है। दुनिया में हर जगह जलवायु परिवर्तन से होने वाली समस्याएं बढ़ रही हैं। फिर भी हम पूरी तरह जागरुक नहीं हुए हैं। तो ऐसे में फिल्म के फायदे से अधिक अहम लोगों में जागरुकता फैलाना है। यह ज्यादा फायदे वाली बात है। आप इस फिल्म को इसी नजरिये से देखें।

आप हमेशा मुद्दों से जुड़ी फिल्में बनाते हैं। क्या आपका मन बड़े स्टारों को लेकर ठेठ मसाला बनाने को नहीं ललचाता?
स्टार क्या है? आज बड़े-बड़े स्टारों की फिल्में फेल हो जाती हैं। मेरी नजर में फिल्म हीरो है। मेरे लिए संजय मिश्रा भी स्टार हैं, शाहरुख खान भी स्टार हैं। दोनों का अपना महत्व है। और जहां तक कमर्शियल पहलू की बात है तो मेरी भी सारी फिल्में कमर्शियल हैं। मैं उनको उसी नजरिये से बनाता हूं। मैं फिल्मों के व्यावसायिक पहलू को कभी नहीं नकारता। हां, ये बात जरूर है कि मैं ‘माइंडलेस’ कमर्शियल फिल्में नहीं बनाता। मैं फिल्में एक संदेश के साथ बनाता हूं। मेरी नजर में आर्ट और कमर्शियल सिनेमा जैसी कोई चीज नहीं होती। बस, अच्छी फिल्म होती है या खराब फिल्म होती है।

उड़ीसा के एक गांव से निकल कर राष्ट्रीय फलक तक पहुंचने और ‘पद्मश्री’ जैसे सम्मान से नवाजे जाने की अब तक की अपनी यात्रा को किस तरह देखते हैं?
कलाकार की यात्रा की कोई परिभाषा नहीं होती। कलाकार का संघर्ष तो हमेशा चलता रहता है। उपलब्धि कलाकार के लिए कुछ नहीं होती। वह जो कहना चाहता है, कह दे, यही उसकी सफलता है। अवॉर्ड, पैसा आदि बातें बाद में आती हैं। मुझे काम करने में सुख मिलता है। मैं अपने काम से संतुष्ट हूं। मेरे लिए वही सबसे बड़ी उपलब्धि है। हां, ये बात जरूर है कि आपको अवॉर्ड मिलता है तो उससे आपकी काम करने की ऊर्जा बढ़ती है।

भविष्य की क्या योजनाएं हैं? क्या ऐसी ही फिल्में बनाते रहेंगे या बड़े बजट की फॉर्मूला फिल्मों में भी हाथ आजमाएंगे?
अभी बच्चों की एक फिल्म पर काम कर रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि जल्दी ही वह पूरी हो जाएगी। पूरी संभावना है कि आप अगले साल उसे सिनेमाहॉल में देख पाएंगे।

(हिन्दुस्तान के "फुरसत" परिशिष्ट में 26 नवंबर 2017 को प्रकाशित)

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