कड़वी हकीकत की मार्मिक कहानी




राजीव रंजन

साढ़े तीन स्टार

फिल्म: कड़वी हवा
निर्देशक: नीला माधब पांडा
कलाकार: संजय मिश्रा, रणवीर शोरी, तिलोत्तमा शोम, भूपेश सिंह, एकता सावंत


कला की सार्थकता तभी है, जब वह यथास्थिति को चुनौती दे। जब आप बेचैन हों तो आपको शांति से भर दे और जब आप निश्चेष्ट हों तो आपको बेचैन कर दे। नीला माधब पांडा की ‘कड़वी हवा’ बेचैन करती है। यह मनोरंजन नहीं करती है, लेकिन मन को झकझोरती है। और ऐसा झकझोरती है कि जब आप सिनेमाहॉल से निकलेंगे तो थोड़े हिले हुए तो जरूर होंगे।

यह फिल्म दो भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों- चंबल इलाके के एक नेत्रहीन वृद्ध यानी बाबा (संजय मिश्रा) और ओडिशा के तटीय क्षेत्र के एक गांव के गन्नू (रनवीर शौरी) की कहानी है। दोनों प्रकृति की मार से सहमे अपने घर-परिवार को बचाने के लिए जी-जान से लगे हैं। एक की बेचैनी उसकी दयनीयता में प्रकट होती है और दूसरे की हृदयहीनता में। संजय मिश्रा सूखा प्रभावित बुंदेलखंड के एक गांव महुआ के निवासी हैं। उनके बेटे मुकुंद (भूपेश सिंह) पर बैंक का कर्ज चढ़ गया है। वह हमेशा कर्ज की चिंता से घिरा रहता है और बाबा इस चिंता से घिरे रहते हैं कि कहीं उनका बेटा दूसरे किसानों की तरह आत्महत्या न कर ले। गन्नू बैंक का रिकवरी एजेंट है, जिसे गांव के लोग यमदूत कहते हैं। लोग कहते हैं कि जो भी गांव उसके वसूली क्षेत्र में आता है, वहां दो-चार लोग तो अपनी जीवनलीला समाप्त कर ही लेते हैं। वह महुआ गांव की वसूली का काम अपने जिम्मे ले लेता है, क्योंकि वहां कमीशन डबल मिलता है। वह अपने परिवार को अगली बरसात से पहले अपने पास बुलाना चाहता है, क्योंकि उसके घर और पिता को समुंदर निगल चुका है। इसलिए वह वसूली में कोई दया नहीं दिखाता। बाबा इस खबर से और डर जाते हैं। वह अपने बेटे को गन्नू से बचाने के लिए के लिए समझौता करते हैं।

संजय मिश्रा इस फिल्म में अपने अभिनय के उत्कर्ष पर हैं। कर्ज में डूबे एक किसान के पिता के रूप में उनकी बेचैनी इतनी असरदार लगती है कि देखने वाले को भी बेचैन कर देती है। उनके बोलने का अंदाज, चलने का अंदाज, उनकी आंखों का सिकुड़ना-फैलना देख कर अभिनय जैसा कुछ लगता ही नहीं। ऐसे लगता है कि अपने गांव के ही किसी बुजुर्ग को देख रहे हैं। ‘आंखों देखी’, ‘मसान’ और ‘कड़वी हवा’ जैसी फिल्मों और उन्हें बनाने वालों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने संजय मिश्रा की अदाकारी को वह स्पेस दिया, जिसके वह हकदार थे। एक अंधे व्यक्ति और पिता के रूप में अपने अभिनय से वह अभिभूत करते हैं। और कुछ नहीं, तो सिर्फ उनके अभिनय के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है। रणवीर शौरी भी मंजे हुए अभिनेता हैं और बैंक रिकवरी एजेंट गन्नू बाबू के रूप और समुंदर में अपने अपने घर और पिता को खो चुके व्यक्ति के रूप में अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। मुंकुद के रूप में भूपेश सिंह और उनकी पत्नी के रूप में तिलोतमा शोम का अभिनय भी बेहतरीन है। बाकी कलाकार भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते हैं।

बतौर निर्देशक नीला माधब पांडा ‘आई एम कलाम’ के बाद एक बार फिर गहरा असर पैदा करने में कामयाब रहे हैं। अगर कहें कि वह बतौर निर्देशक यहां ‘आई एम कलाम’ से बड़ी लकीर खींचते हैं तो गलत नहीं होगा। पूरी फिल्म में शायद ही कोई ऐसा दृश्य हो, जिस पर उनकी पकड़ ढीली पड़ती है। क्लाइमेट के प्रभावित होने की त्रासदी को उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से बुंदेलखंड के सूखे और अप्रत्यक्ष रूप से उड़ीसा के समुद्री तूफान के जरिये असरदार तरीके से सामने रखा है। जब फिल्म का मुख्य किरदार अपनी पोती से हवा के बारे में कहता है- हमारे समय में तो चार दिशाओं से खुशबू लेकर आती थी। पता नहीं इसे अब क्या हो गया है- तो वह एक वैश्विक त्रासदी को हमारे सामने बड़े सीधे-सादे शब्दों में रख देता है।

निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर ने चंबल को उसकी पूरी नैसर्गिकता के साथ पेश किया है। हिंदी सिनेमा में इन दिनों गांव का ऐसा यथार्थ चित्रण नहीं के बराबर मिलता है। इस फिल्म में मौसम की मार से छटपटा रहा ग्रामीण जीवन अपनी पूरी दयनीयता के साथ मौजूद है। फिल्म कहीं भी उपदेश देने की कोशिश नहीं करती, बस अपनी बात कथानक, परिवेश और किरदारों के जरिये कहते जाती है। बिना किसी हड़बड़ी के पूरे इत्मीनान और संवेदनशीलता के साथ। क्लाइमैक्स में निष्कर्ष देखने के आदी लोगों को यह फिल्म अतृप्त छोड़ देती है। ये नहीं बताती कि गन्नू के परिवार का क्या हुआ, मुकुंद लौटा कि नहीं, आदि आदि। दरअसल यह फिल्म बस चेतावनी देकर चली जाती है। आप अंदाजा लगाते रहिए कि हमारे साथ कितना बुरा हो सकता है, अगर ये हवा और कड़वी होती गई तो...

और चलते चलते गुलजार की गहरी आवाज में उन्हीं की नज्म ‘मौसम बेघर होने लगे हैं... डरने लगी है जमीन इंसानों से...’ फिल्म के संदेश को और गहरे मायने दे देती है। यह फिल्म जरूर देखी जाने लायक है। ऐसी फिल्में बहुत कम बनती हैं।

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