लखनऊ सेंट्रल: कलाकार अच्छे, कहानी कमजोर



राजीव रंजन

कलाकार: फरहान अख्तर, डायना पेंटी, रवि किशन, दीपक डोबरियाल, रोनित रॉय, राजेश शर्मा, जिप्पी ग्रेवाल, इनामुल हक, वीरेंद्र सक्सेना
रेटिंग- 2.5 स्टार


छोटे शहर के लोगों के बड़े सपने और उन सपनों के बीच आने वाली बाधाएं, उन बाधाओं पर जीत और अंतत: सपनों का साकार होना। इस थीम पर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं और उनमें से कुछ ने असर भी छोड़ा है। इसी कड़ी में बॉलीवुड की नई पेशकश है ‘लखनऊ सेंट्रल’। फिल्म के सह-लेखक व निर्देशक रंजीत तिवारी और लेखक असीम अरोड़ा ने एक ऐसी कहानी बुनने की कोशिश की है, जिसमें संजीदगी, मनोरंजन और रोमांच, सब पर्याप्त मात्रा में हो। उन्होंने इसे ‘मास’ और ‘क्लास’ दोनों के लिए बनाने की कोशिश की है, लेकिन चूक गए हैं। यह एक शुद्ध मसाला बॉलीवुड फिल्म बन कर रह गई है, जिसमें मसालों का चयन और अनुपात भी ठीक नहीं है।

किशन मोहन गिरहोत्रा (फरहान अख्तर) उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद का एक आम नौजवान है। वह गायक बनना चाहता है। अपना बैंड बनाना उसका सबसे बड़ा सपना है। वह अपनी सीडी रिकॉर्ड करता है और प्रसिद्ध गायक-अभिनेता मनोज तिवारी को सुनना चाहता है, जो उसके शहर में कंसर्ट के लिए आए हैं। इस कार्यक्रम में उसका एक आईएएस अफसर से झगड़ा हो जाता है। दुर्भाग्य से उसी दिन उस आईएएस अफसर का मर्डर हो जाता है। किशन को उसकी हत्या के आरोप में पकड़ लिया जाता है और इस जुर्म में उसे उम्रकैद हो जाती है। आईएएस का परिवार इस सजा से संतुष्ट नहीं होता और हाई कोर्ट में किशन को फांसी की सजा दिए जाने के लिए अपील करता है। लिहाजा मुरादाबाद जेल में 18 महीने बिताने के बाद किशन को लखनऊ सेंट्रल जेल में स्थानांतरित कर दिया जाता है, जहां प्रदेश के सबसे घुटे हुए अपराधी रखे जाते हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री (रवि किशन) चाहते हैं कि प्रदेश में कैदियों के बैंड की सालाना प्रतियोगिता में लखनऊ सेंट्रल का बैंड भी भाग ले। लेकिन यह बैंड बनाना बहुत कठिन कार्य है। गायत्री कश्यप (डायना पेंटी) एक एनजीओ से जुड़ी है और कैदियों के सुधार के लिए काम करती है। प्रदेश के आईजी, जेल (वीरेंद्र सक्सेना) बैंड बनाने की जिम्मेदारी गायत्री को सौंपते हैं।

लखनऊ सेंट्रल में बंद किशन को यह बात पता चलती है तो वह गायत्री से संपर्क करता है और बैंड बनाने में अपना सहयोग देने की बात करता है। वह बैंड के लिए चार और लोगों- विक्टर चट्टोपाध्याय (दीपक डोबरियाल), पाली (जिप्पी ग्रेवाल), पुरुषोत्तम मदन पंडित (राजेश शर्मा) और दिक्कत अंसारी (इनामुल हक) का चुनाव करता है। किशन का प्लान बैंड के बहाने जेल से भागने का है, ताकि वह अपना सपना पूरा कर सके। इसलिए बैंड में लोगों का चुनाव उनकी प्रतिभा के आधार पर नहीं, बल्कि जेल से भागने में उनकी उपयोगिता के आधार पर करता है। और स्वाभाविक है कि उन चारों के भी जेल से फरार होने की अपनी वजहें हैं। उनके इस मनसूबे के बीच जेलर श्रीवास्तव (रोनित रॉय) दीवार बन कर खड़ा हो जाता है।

फिल्म का सब्जेक्ट तो ठीक है, लेकिन पटकथा हिचकोले खाती रहती है। इस वजह से यह असरदार फिल्म नहीं बन पाई है। किशन जेल से भाग कर अपना बैंड बनाना चाहता है। लेकिन क्या यह संभव है कि उम्रकैद पाया हुआ एक कैदी जेल से भाग कर लाइमलाइट वाली जिन्दगी गुजार सके? एक बार को मान भी लिया जाए, तो यह कैसे होगा, इसे निर्देशक जरा-सा भी स्थापित नहीं कर पाते हैं। इसी तरह की कई गड़बड़ियां पटकथा में हैं। जेल ब्रेक वाली फिल्मों में माहौल में जो एक इंटेंसिटी होती है, उसका अभाव इस फिल्म में है। फिल्म जिस संभावना के साथ शुरू हुई थी, वह क्लाईमैक्स तक आते-आते बिखर जाती है।

इस कहानी के केंद्र में बैंड है तो उस लिहाज से इसका संगीत भी होना चाहिए था, लेकिन वह भी असरदार नहीं है। ‘रंगदारी’ एक साधारण गाना है, ‘कबूतर’ का पिक्चराइजेशन अच्छा है, यह सुनने में ठीक लगता है। क्लाईमैक्स में इस्तेमाल किया गया गाना ‘कावा कावा’ अच्छा लगता है, लेकिन मौलिक नहीं है। इसका बेहतर संस्करण हम ‘मॉनसुन वेडिंग’ में वर्षों पहले सुन चुके हैं। इस फिल्म में कुछ सकारात्मक बातें भी हैं। जेल के दृश्यों में प्रामाणिकता दिखती है। जेल में कैदियों के बीच वर्चस्व को लेकर होने वाले संघर्षों के दृश्य ठीक बन पड़े हैं। सिनमेटोग्राफी भी अच्छी है।

फिल्म की कास्टिंग अच्छी है। किशन के रूप में फरहान अख्तर का काम ठीक है। उन्होंने अपने बोलने के लहजे में बदलाव किया है और थोड़े सफल भी रहे हैं, हालांकि कई जगह उसमें गड़बड़ी भी दिखती है। उनके चेहरे पर उम्र का असर दिखने लगा है। इस फिल्म में उनका जो किरदार है, उस हिसाब से उनकी उम्र ज्यादा लगती है। डायना पेंटी भी अच्छी लगी हैं, लेकिन निर्देशक उनके किरदार को ठीक से गढ़ नहीं पाए हैं। रोनित रॉय जेलर के रूप में प्रभावशाली लगे हैं। इस तरह के नकारात्मक शेड लिए हुए किरदारों में वे जमते हैं। रवि किशन का मुख्यमंत्री का किरदार बहुत दिलचस्प है। वह जब-जब पर्दे पर आते हैं, सबसे ज्यादा मजा आता है। बैंड के शेष चार कैदियों के रूप में दीपक डोबरियाल, राजेश शर्मा, जिप्पी ग्रेवाल और इनामुल हक का काम अच्छा है। कुल मिला कर ‘लखनऊ सेंट्रल’ एक औसत दर्जे के आसपास की फिल्म है।

(Livehindustan.com में 15 सितम्बर और हिंदुस्तान में 16 सितम्बर, 2017 को प्रकाशित)

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
सटीक समीक्षा है आपकी. यह फ़िल्म बॉक्स आफिस पर कमाल नही दिख पाई.

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