बदलते मौसम की उदासी!


राजीव रंजन

इस दो दरवाजे वाले
किराये के कमरे में
हर चीज अपनी जगह से है
कुछ तरतीब से रखी हुई
और कुछ बेतरतीब सी
करीने से तह करके
टीन के बक्‍से में रखे कपड़े
रेक पर सजी हुईं किताबें
बिस्‍तर पर बिखरे धुले हुए कपड़े
फैले अखबार रिसाले और किताबें
छत से लटकता हुआ पंखा
सन्‍नाटे को तोड़ता हुआ
सन्‍नाटे को बढ़ाता हुआ
याद आती शरद ऋतु में
जेठ में बजती गांव की खामोशी
यह बदलते मौसम की उदासी है
या दिल ही है कुछ खोया-खोया सा।

(3/10/2006)

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