राज कपूर: एक तारा न जाने कहां खो गया

राजीव रंजन



14 दिसंबर 1924 को जन्मे रणबीर राज कपूर एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें फिल्म निर्माण की किसी एक विधा से जोडक़र उनका सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। क्या नहीं थे वे? निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, गीत-संगीत की बारीकियां समझने वाला शख्स, फिल्म संपादन का विशद् ज्ञान रखने फिल्मकार। एक बहुआयामी व्यक्तित्व, जिसने भारतीय सिनेमा को अपने अविस्मरणीय योगदान से समृद्ध किया। फिल्मों के सेट पर क्लैप देने वाला वह मामूली लडक़ा एक दिन भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा शोमैन बन जाएगा, तब किसी ने सोचा नहीं होगा। उस लडक़े के असाधारण पिता पृथ्वीराज कपूर ने भी शायद ही सोचा होगा कि आगे चलकर उनका यह बेटा एक दिन उन्हीं को निर्देशित करेगा। लेकिन, महान लोग हमेशा अप्रत्याशित होते हैं और इसमें कोई शक नहीं कि राज कपूर एक महान फिल्मकार थे। शुरुआती दौर में फिल्म स्टूडियो में छोटे-मोटे काम करने वाले राज की प्रतिभा को पहचाना केदार शर्मा ने और अपनी फिल्म ‘नीलकमल’ (1947) में हीरो की भूमिका दी। फिल्म की नायिका तब की सुपर स्टार मधुबाला थीं। महबूब की ‘अंदाज’ (1949) से राज इंडस्ट्री के चहेते कलाकार बन गए। सही मायनों में वे संपूर्ण फिल्मकार थे, जिन्हें फिल्म निमार्ण के हर क्षेत्र की गहरी जानकारी थी।

महज 24 साल की उम्र में अपना स्वतंत्र बैनर स्थापित कर फिल्म निर्माण के चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश कर जाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। ‘आग’ (1948) राज कपूर के बैनर के तहत बनी पहली फिल्म थी, जिसने मायानगरी में यह घोषणा कर दी कि हिंदी सिनेमा के आकाश में एक चमकीले नक्षत्र का उदय हो चुका है। आगे चलकर यह बात अक्षरश: सही साबित हुई। इस फिल्म में पहली बार एक साथ काम करने वाली राज-नरगिस की जोड़ी आगे चलकर बॉलीवुड के इतिहास की सबसे मशहूर जोडिय़ों में शुमार की गई। इसके बाद उनके आपसी रिश्ते परवान चढ़े, जिसके बारे में काफी कुछ कहा-सुना-लिखा गया। बात बहुत आगे तक जा पहुंची थी, लेकिन राज कपूर के शादीशुदा होने के कारण दोनों का प्यार शादी में बंधन तक नहीं पहुंच सका। इस रिश्ते ने राज कपूर के पारिवारिक जीवन को हिला कर रख दिया था। राज जब नरगिस के संपर्क में आए, तब तक उनकी शादी (1946) कृष्णा कपूर से हो चुकी थी। राज और नरगिस के अलगाव के बाद साथ-साथ उनकी अंतिम फिल्म थी ‘चोरी-चोरी’, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया। महमूद की अमिताभ-अरूणा इरानी-शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत ‘बांबे टू गोवा’ इसी से प्रभावित थी। महेश भट्ïट निर्देशित और आमिर-पूजा भट्ïट अभिनीत दिल है किमानता नहीं’ तो हू-ब-हू इसकी रीमेक ही थी। राज कपूर के फिल्मों का रीमेक तो हुआ ही, उनके निजी जीवन का रीमेकभी बॉलीवुड में देखने को मिला। जैसा हश्र राज-नरगिस के रिश्ते का हुआ, बाद में कुछ इसी तरह से अमिताभ बच्चन और रेखा केमामले में भी हुआ। फिल्म ‘दो अनजाने’ की शूटिंग के दौरान दोनों की जान-पहचान आगे बढ़ी तो अमिताभ का वैवाहिक जीवन भी सवालों के घेरे में आ गया। अंतत: दोनों को अपनी राहें अलग करनी पड़ीं।

खैर, हम बात शौमैन राज कपूर की कर रहे हैं। ‘आग’ के बाद निर्माता-निर्देशक और अभिनेता के रूप में उनकी अगली फिल्म आई ‘बरसात’ (1949) जिन्हें उन्हें इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया। इसी ‘बरसात’ में राज और नरगिस पर फिल्माया गया एक रोमांटिक दृश्य आर.के. बैनर का ‘लोगो’ बन गया। जिन लोगों ने यह फिल्म देखी होगी, उन्हें इस बात की जानकारी होगी। बरसात केबाद तो राज कपूर ने शानदार फिल्मों की झड़ी लगा दी। निर्माता-निर्देशक-अभिनेता के रूप में ‘आवारा’ (1951), ‘श्री 420’ (1955), ‘संगम’ (1964), ‘मेरा नाम जोकर’ (1970), निर्माता-अभिनेता के रूप में ‘जागते रहो’ (1956), ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960), निर्माता-निर्देशक के रूप में ‘बॉबी’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (1978), ‘प्रेम रोग’ (1982), ‘राम तेरी गंगा मैली’ (1985) और निर्माता के रूप में ‘बूट पॉलिस’ (1954) व ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1954) नहीं जैसी अविस्मरणीय फिल्में उन्होंने हिंदी सिनेमा प्रमियों को दीं। राज कपूर की ‘श्री 420’ एक ऐसी फिल्म थी जिसने हिंदी सिनेमा में प्रति नायक (एंटी हीरो) की छवि को पुष्ट किया और लोकप्रिय भी बनाया। हालांकि, कहते हैं किउन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में बनी अशोक कुमार की ‘किस्मत’ ने सबसे पहले प्रति नायककी छवि को रुपहले पर्दे पर प्रस्तुत किया था जिसमें नायकअशोक कुमार को सिगरेट पीते हुए दिखाया गया था। राज कपूर की ही ‘आवारा’ में भी प्रति नायककी छवि को पेश किया गया था। लेकिन, यह ‘श्री 420’ ही था जिसने हिंदी सिनेमा में प्रति नायकको स्थापित कर दिया। बाद के दिनों में तो ‘सदी केमहानायक’अमिताभ बच्चन हों या आज के ‘किंग खान’, सबको प्रति नायक की भूमिका ने ही अर्श पर पहुंचाया। याद कीजिए अमिताभ की ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’, ‘लावारिस’, ‘ग्रेट गैंबलर’, आदि और शाहरूख खान की ‘डर’, ‘बाजीगर’। क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह की फिल्में ‘श्री 420’ का विस्तार हैं, उसकी उत्तर कथा हैं? यकीनन।

‘श्री 420’ ही नहीं राज कपूर की हर फिल्म एक मील का पत्थर है। राजकपूर की फिल्में सिर्फ मनोरंजन का माध्यम ही नहीं थीं, बल्कि उनमें एक संदेश होता था जो हमारी चेतना को झकझोरता था। ‘आवारा’ में उन्होंने दिखाया कि सिर्फ संभ्रांत घराने में पैदाइश से ही व्यक्ति का निर्माण नहीं होता, बल्कि उसके व्यक्तित्व में उस वातावरण का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है जिसमें वह पला होता है। उसी तरह ‘बूट पॉलिस’ में एक बच्चे के जीवन-संघर्ष को मार्मिक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ इस तथ्य को रेखांकित करता है कि ‘सच’ और ‘सरलता’ से किसी को भी जीता सकता है। उसी तरह ‘संगम’ इंसानी रिश्तों की जटिलता को पूरी संवेदना के साथ हमारे सामने लाती है। ‘मेरा नाम जोकर’ के बिना तो राजकपूर का सम्यक मूल्यांकन हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसी फिल्म थी जिसके बारे में अगर कहा जाए कि एक फिल्मकार और अभिनेता के रूप में यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनात्मक अभिव्यक्ति थी तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हिंदी सिनेमा में शायद पहली बार इस बात को रूपांकित किया गया कि सार्वजनिक जीवन में लोगों का मनोरंजन करने वाले की निजी जिंदगी जिन झंझावातों से गुजरती है, लोग इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। वह मां-मां कहकर रोता है, तड़पता है और लोग तालियां बजाकर कहते हैं कि वाह! क्या अभिनय है! दिल के दर्द छिपाकर लोगों का मनेरंजन करने वाले कलाकार को किस पीड़ा से गुजरना पड़ता है, ‘मेरा नाम जोकर’ इस यथार्थ की संभवत: सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। इस फिल्म के माध्यम से राज कपूर ने ‘शो मस्ट गो ऑन’ का संदेश दिया। वहीं ‘बॉबी’ किशोर प्रेम की भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ आंतरिक सौंदर्य बनाम शारीरिक सौंदर्य के गंभीर द्वंद्व को दर्शकों के सामने लाती है, तो ‘प्रेमरोग’ हमारे समाज में विधवाओं की नारकीय स्थिति को दिखाती है। कितनी अजीब विडंबना है कि ‘कुपरंपराओं’ की आड़ में विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है, उन्हें जानवरों से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर किया जाता है, लेकिन ‘तथाकथित सभ्य समाज’ के वही झंडाबरदार अपने घर की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने में परंपराओं का हनन नहीं मानते। ‘प्रेमरोग’ हमारे इसी दोगलेपन का आईना हमें दिखाती है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ राजकपूर की अंतिम फिल्म थी जिसने राजनीति में फैले भ्रष्टाचार को अपना विषय बनाया। आज समाज का नासूर बन चुके धनपतियों और राजनेताओं के गठजोड़ को राजकपूर ने 22 साल पहले ही पर्दे पर प्रभावशाली तरीके से दिखा दिया था। राज कपूर जितने लोकप्रिय भारत में थे उतने ही लोकप्रिय रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) में भी थे। राज साहब की ‘आवारा’ रूस में ‘ब्राद्याग्या’ के नाम से रिलीज हुई थी और अत्यंत सफल रही थी। उन जैसी सफलता तब विदेश में किसी कलाकार को नहीं मिली थी।

यह तो थी निर्माता-निर्देशक राज कपूर की बात। अब बात करते हैं अभिनेता राज कपूर की। अभिनय में उन्होंने अपने समकालीन अभिनेताओं से अलहदा शैली अपनाई जिसमें विश्व सिनेमा के महानतम कलाकार चार्ली चैप्लिन की झलक मिलती है। उन्हें भारत का चार्ली चैप्लिन कहा भी जाता है। इस शैली की शुरुआत ‘श्री 420 से’ होती है। याद कीजिए इस फिल्म के गीत ‘मेरा जूता है जापानी’ का फिल्मांकन। ‘तीसरी कसम’ का हीरामन हो, ‘चोरी-चोरी’ का पत्रकार सागर हो, ‘जिस देश में गंगा बहती हो’ या फिर ‘मेरा नाम जोकर’ का राजू, इन भूमिकाओं को राज कपूर ने पर्दे पर सजीव कर दिया। यह राज कपूर की नितांत निजी शैली थी, चार्ली चैप्लिन से प्रभावित होने के बावजूद। नब्बे के दशक में अनिल कपूर ने इस शैली को ‘ईश्वर’ और ‘बेटा’ जैसी फिल्मों में अपनाकर दर्शकों और समीक्षकों की काफी प्रशंसा बटोरी। राज कपूर के अभिनय में पूरी तरह से एक आम आदमी की सरलता मौजूद थी। यही कारण है कि जब महान गीतकार शैलेंद्र ने फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की कालजयी कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ पर अपनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाने का संकल्प लिया तो सीधे-साधे हीरामन की भूमिका के लिए राज कपूर का नाम ही उनके जेहन में आया।

राज कपूर की फिल्मों का एक और सशक्त पहलू होता था गीत-संगीत। राज कपूर-मुकेश-शैलेंद्र-हसरत जयपुरी-शंकर-जयकिशन और लता के अद्ïभूत मेल को भला कौन भूल सकता है। इनके सम्मिलित योगदान से नि:सृत मधुर-मनमोहक गाने आज भी लोगों की पसंद बने हुए हैं। बरसात का ‘राजा की आएगी बारात’, आवारा का ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे’, ‘अब रात गुजरने वाली है’, श्री 420 का ‘रमैया वस्ता वैया’, ‘फिर प्यार न कैसे हो’, ‘मेरा जूता है जापानी’, जिस देश में गंगा बहती है का ‘ओ बसंती पवन पागल’, ‘आ अब लौट चलें’, ‘मेरा नाम राजू घराना अनाम’, संगम का ‘बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं’, ‘दोस्त दोस्त ना रहा’, ‘क्या करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया’, मेरा नाम जोकर का ‘जीना यहां मरना यहां’, ‘जाने कहां गए वो दिन’, ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’, बॉबी का ‘हम तुम एक कमरे में बंद हो’, ‘झूठ बोले कौव्वा काटे’, ‘अंखियों को रहने दे अंखियों के आसपास’, सत्यम शिवम सुंदरम का ‘यशोमति मैया से बोले नंदलाला’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, प्रेमरोग का ‘भंवरे ने खिलाया फूल’, ‘मोहब्बत है क्या चीज’, ‘मेरी किस्मत में तू नहीं शायद’, राम तेरी गंगा मैली का ‘सुन साहबा सुन’, ‘एक राधा एक मीरा’ आदि राज कपूर की फिल्मों के कुछ गाने हैं जिन्हें बतौर उदाहरण दिया गया है। अगर उनकी फिल्मों के सारे गीतों की चर्चा की जाए तो अलग से एक ग्रंथ तैयार हो सकता है। राज कपूर को भारतीय सिनेमा में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए दादासाहब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। उनकी फिल्में आज भी नई पीढ़ी के फिल्मकारों का मार्गदर्शन कर रही हैं और उन्हें श्रेष्ठ काम करने की प्रेरणा देती हैं।

राज कपूर अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘हिना’ बनाना चाहते थे (बाद में उनके बड़े बेटे रणधीर कपूर ने उनके इस सपने को पूरा किया), लेकिन इसके पहले ही 2 जून 1988 को काल के क्रूर पंजों ने उन्हें हमसे छीन लिया। उनके पार्थिव शरीर का भले ही अंत हो गया, लेकिन वे अपनी फिल्मों के माध्यम से हमेशा हमारे बीच रहेंगे। उनके लिए उन्हीं की फिल्म का एक गीत बिल्कुल सटीक बैठता है-
‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल
जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल।’
उनके बोल, उनका काम आज भी हमारे बीच है। ऐसी शख्सियतें कभी-कभी ही पैदा होती हैं।

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