क्‍या लिखूं?


राजीव रंजन

क्‍या लिखूं?
वक्‍त इफरात में है और
कलम में रोशनाई भी बहुत
मगर दिल रोशन नहीं है
क्‍या लिखूं?

ये बरस भी गुजर गया
कई और बरसों की तरह
कई भरते जख्‍मों को हरा करके
तो कुछ नए जख्‍म देके
कुछ खुशियों के छीटें भी पड़े, पर
ऐसे कि तपते रेगिस्‍तान में
खो जाती हैं पानी की बूंदें जैसे।

लिखने को तो वैसे लिख सकता हूं
आफताब से भी ज्‍यादा सुर्ख
घरों की दास्‍तान
माहताब से भी ज्‍यादा रोशन
चेहरों की चमक
पर बीच में आ जाते हैं
करोंड़ों तारीक़ मंज़र।

लिखने को तो लिख सकता हूं
आवाज की रफ्तार से भी तेज दौड़ते
‘कामयाब’ कदमों की कहानी
पर याद आ जाती हैं कई कहानियां
फंसी हैं जो अंतहीन अंधेरे सुरंगों में
अपने अंत के इंतजार में।

लिखने को तो बहुत कुछ है, लेकिन
कई ‘लेकिन’ बीच में आ जाते हैं।

ये अंधेरा हर तरफ है
या मैं ही डूबा हुआ हूं अंधेरों में?

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