स्वीकारोक्ति


राजीव रंजन


मैं गोबर हूं।
प्रेमचंद के उपन्यास गोदान का किरदार नहीं
गाय-भैंस का गोबर।

हां याद आया, गोदान में गाय भी तो थी
बस समझ लीजिए उसी का गोबर
अंग्रेजी में बड़ा प्यारा नाम है इसका
"काऊ डंग केक" पर इसे खाता कोई नहीं।

बहरहाल कई बार "गोबर" का भी जलवा होता है
इससे लीपने से घर-आंगन शुद्ध हो जाता है
पर वो वाला गोबर नहीं हूं
गोबर से लक्ष्मी-गणेश भी बनते हैं
पर वो वाला भी नहीं हूं।

धनिया जिसे जमीन पर थाप कर
गोइठा (उपले) बना लेती है
बस वही गोबर हूं।

फिर चुल्हें में झोंक दिया जाता है मुझे
मैं जलता रहता हूं खाना पकता रहता है
और फिर मैं राख बन जाता हूं
और हां, खाने-पीने के बाद आखिर में
उसी राख से बर्तन मांज लिए जाते हैं
एक टिकट में दो खेला हो जाता है

तृप्त आत्माएं कहती हैं
गोइठा पर बना खाना सुस्वादु होता है
और राख से बर्तन चमक जाते हैं
अधिकांश "गोबरों" का हासिल यही है।

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