फिल्मों में इतिहास यानी दाल में नमक

राजीव रंजन

हिंदी फिल्मों और पौराणिक व ऐतिहासिक कथाओं का बहुत पुराना रिश्ता है, बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि दोनों शुरू से साथ-साथ चल रहे हैं। भारत की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ पौराणिक किरदार हरिश्चंद्र पर आधारित थी। इसी तरह भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ एक पीरियड फिल्म थी, जिसमें एक काल्पनिक ऐतिहासिक राजपरिवार की कहानी दिखाई गई थी।



दरअसल शुरुआती भारतीय सिनेमा पारसी थियेटर से बहुत प्रभावित था। यही वजह है कि हिंदी सिनेमा के प्रारम्भिक दौर में पौराणिक और ऐतिहासिक किरदारों की प्रधानता देखने को मिलती है। धीरे-धीरे यह पारसी थियेटर के प्रभाव से मुक्त हुआ और सामाजिक मुद्दे इसके केंद्र में आए। लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक किरदार भी इसकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुए। रह-रह कर ऐसी फिल्में बनती रहीं और उन्हें दर्शकों का प्यार भी मिलता रहा। सोहराब मोदी की ‘पुकार’ (1939) से लेकर ‘पद्मावत’ (2018) तक बॉलीवुड का इतिहास से प्यार कायम है। हालांकि ‘पद्मावत’ को लेकर जिस तरह का उग्र विवाद हुआ है, और कंगना रनोट की ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी’ को लेकर विवाद की सुगबुगाहट होने लगी है, उसे देखते हुए भविष्य में ऐतिहासिक किरदारों पर फिल्म बनाने से पहले फिल्मकार कई दफा सोचेंगे जरूर।

बहरहाल, अभिनेता-निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी को हिंदी सिनेमा में ऐतिहासिक सिनेमा का पुरोधा माना जाता है। सोहराब मोदी ने अपनी शुरुआत पारसी थियेटर से ही की थी। उन्होंने 1936 में अपनी फिल्म कंपनी ‘मिनर्वा मूवीटोन’ की स्थापना की। उनकी शुरुआती फिल्में सामाजिक मुद्दों पर थीं, लेकिन फिर वो ऐतिहासिकता की ओर आकृष्ट हुए और 1839 में ‘पुकार’ बनाई, जो जहांगीर की न्यायप्रियता को दर्शाती है। फिल्म लोकप्रिय हुई और लोगों के मन पर इसने गहरा असर छोड़ा। मुगल बादशाह जहांगीर ऐतिहासक शख्सीयत हैं, लेकिन इस फिल्म में जहांगीर की न्यायप्रियता की जो घटनाएं दिखाई गई हैं, उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध नहीं है। बावजूद इसके ये दृश्य दर्शकों के जेहन में इतिहास के रूप में दर्ज हो गए। दरअसल लोक जीवन में कुछ बातें इतनी प्रचलित हो जाती हैं कि गुजरते समय के साथ वह सच के समानांतर हो जाती हैं। इस फिल्म को प्रामाणिक बनाने के लिए सोहराब मोदी ने इसे मुगलकालीन स्थानों और इमारतों में फिल्माया। प्रसिद्ध अभिनेत्री सायरा बानो की मां और दिलीप कुमार की सास नसीम बानो इस फिल्म से भारत में एक बेहद लोकप्रिय नाम बन गई थीं।

इसके बाद सोहराब मोदी ने 1942 में ‘सिकंदर’ बनाई। इसे उनकी सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक फिल्म माना जाता है। इसमें पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर और स्वयं सोहराब मोदी ने राजा पोरस की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म अपने समय के हिसाब से बहुत महंगी और भव्य थी। इसके भव्य सेटों और युद्ध के दृश्यों की तुलना हॉलीवुड की श्रेष्ठ फिल्मों की गुणवत्ता से की गई। हालांकि फिल्म ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित थी, लेकिन उनमें कल्पना का भी जबर्दस्त समावेश किया गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रिलीज हुई इस फिल्म ने भारतीयों में जबर्दस्त देशभक्ति की भावना का संचार किया। हालांकि फिल्म में अंग्रेजी शासन के खिलाफ प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी नहीं था और बॉम्बे सेंसर बोर्ड ने इसे पास भी कर दिया था, लेकिन फिर भी इसे आर्मी कैंटोनमेंट से जुड़े कुछ थियेटरों में प्रतिबंधित कर दिया गया। बाद में 1965 में केदार कपूर के निर्देशन में ‘सिकंदर-ए-आजम’ भी बनी, जिसमें पृथ्वीराज कपूर ने पोरस और दारा सिंह ने सिकंदर की भूमिका निभाई। इस फिल्म के गाने ‘जहां डाल डाल पर सोने की चिड़ियां करती है बसेरा/वो भारत देश है मेरा’ और ‘ऐ मां तेरे बच्चे कई करोड़’ आज भी राष्ट्रीय त्योहारों पर सुने जाते हैं।

इसके बाद 1943 में सोहराब मोदी ने ‘पृथ्वी वल्लभ’ बनाई। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, लेखक और शिक्षाविद कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की किताब ‘पृथ्वी वल्लभ’ पर आधारित थी। सोहराब मोदी की एक और चर्चित ऐतिहासिक फिल्म थी ‘झांसी की रानी’, जिसे भारत की पहली ‘टेक्नीकलर फिल्म’ कहा जाता है। यह फिल्म उन्होंने 1952-53 में बनाई थी और इसके लिए हॉलीवुड से तकनीशियन बुलवाए थे। हालांकि फिल्म चली नहीं और अच्छा-खासा नुकसान हुआ। फिर उन्होंने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के समकालीन प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब पर भी उसी नाम से फिल्म बनाई, जो भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। इसमें कोई दोराय नहीं कि सोहराब मोदी ने ऐतिहासिक फिल्मों को एक ऊंचाई प्रदान की। लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने जितनी ऐतिहासिक फिल्में बनाईं, वो ऐतिहासिक संदर्भ में जरूर थीं, लेकिन पूरी तरह से इतिहास नहीं थीं। उनमें इतिहास उतना ही है, जितना दाल में नमक।

वैसे हिंदी की ज्यादातर ऐतिहासिक फिल्मों पर गौर करें तो पाएंगे कि उनमें इतिहास एक संदर्भ बिंदु के तौर पर ही मौजूद है। उन्हें पूरी तरह ऐतिहासिक कहना इतिहास के साथ अन्याय होगा और उन फिल्मों के साथ भी। लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं कि ऐसी फिल्में दर्शकों के मन में इतिहास के तौर पर ही दर्ज हो जाती हैं। इसका एक क्लासिक उदाहरण है के. आसिफ की ‘मुगल-ए-आजम’। इस फिल्म ने एक ऐसे किरदार ‘अनारकली’ को अमर कर दिया, जिसके बारे में इतिहास में जानकारी नहीं मिलती। साथ ही, संभवत: इसी फिल्म ने जोधाबाई को भी अकबर की पत्नी में रूप में स्थापित कर दिया। हालांकि ‘भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्’ के पूर्व अध्यक्ष और इतिहासकार इरफान हबीब इसे सही नहीं मानते। उनके अनुसार जोधाबाई की ऐतिहासिकता सिद्ध नहीं है और ‘मुगल-ए-आजम’ एक काल्पनिक फिल्म है। हालांकि अकबर और सलीम ऐतिहासिक हैं और सलीम का विद्राह भी इतिहास में दर्ज है। लेकिन के. आसिफ की अनारकली लोगों को इतनी भा गई कि लोगों ने उसे वास्तव में शहजादा सलीम की प्रेमिका मान लिया और अकबर को एक निर्दयी शासक।

यहां गुलजार निर्देशित ‘मीरा’ (1979) का जिक्र भी जरूरी है। इस फिल्म के निर्माण में गुलजार ने मीराबाई के बारे में प्रचलित लोकश्रुतियों की बजाय इतिहास का ज्यादा सहारा लिया। इसे उन्होंने धार्मिक की बजाय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गढ़ा। हालांकि उन्होंने रचनात्मक आजादी भी ली थी। लेकिन, उन्होंने ‘पद्मावत’ के मुकाबले मीरा और अन्य किरदारों को इतने संतुलित और प्रामाणिक ढंग से गढ़ा कि उस पर कोई विवाद नहीं हुआ। फिल्म में मीरा की भूमिका हेमा मालिनी ने निभाई थी। यह उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से है। इस फिल्म में विनोद खन्ना ने मीरा के पति राणा भोजराज सिसोदिया की भूमिका निभाई थी और अमजद खान ने अकबर की। इसमें शम्मी कपूर (विक्रमजीत सिंह सिसोदिया) भी एक अहम भूमिका में थे।

बॉलीवुड में ऐतिहासिक फिल्मों की लंबी सूची है। इनमें ‘हलाकू’ (1956), ‘चंगेज खां’ (1957), ‘आम्रपाली’ (1966), ‘रजिया सुल्तान’ (1983), ‘अशोका’ (2001), ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ (2002), ‘मंगल पांडे: द राइजिंग’ (2005), ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस: द फॉरगॉटेन हीरो’ (2005) ‘जोधा अकबर’ (2008), ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015), आदि प्रमुख फिल्में हैं।

इनमें ‘अशोका’, ‘मंगल पांडे: द राइजिंग’, ‘जोधा अकबर’, ‘बाजीराव मस्तानी’, ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ को लेकर काफी विवाद भी हुआ। ‘अशोका’ और मंगल पांडे को लेकर यह आरोप लगा कि दोनों फिल्मों में महान शासक अशोक और महान क्रांतिकारी मंगल पांडेय के चरित्र के साथ खिलवाड़ किया गया है। वहीं ‘जोधा अकबर’ को लेकर आशुतोष गोवारीकर पर आरोप लगा कि उन्होंने फिल्म के लिए उचित शोध नहीं किया। जोधाबाई नाम की अकबर की कोई पत्नी नहीं थीं। इस बात की पुष्टि इरफान हबीब सहित कई दूसरे इतिहासकार भी करते हैं। ‘बाजीराव मस्तानी’ को लेकर भी विवाद हुआ। मस्तानी के वंशजों ने आरोप लगाया था कि फिल्म में मस्तानी के किरदार को सही तरह से चित्रित नहीं किया गया। वहीं ‘लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ पर आरोप लगा कि उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चरित्र को कमजोर तरीके पेश किया गय। इस वजह से फिल्म में कई कट लगे।

अब तक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फिल्मों पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि इनमें इतिहास की छौंक तो है, लेकिन ये इतिहास नहीं है। इनमें इतिहास की झलक मिलती तो है, लेकिन इन्हें इतिहास मानना शायद उचित नहीं होगा।

(हिन्‍दुस्‍तान के रविवासरीय परिशिष्‍ट ‘फुरसत’ के पृष्‍ठ 2 पर 11 फरवरी को प्रकाशित)

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