कुछ मिसिंग है इस ‘मिसिंग’ में

राजीव रंजन

फिल्म समीक्षा: मिसिंग

दो स्टार (2 स्टार)

कलाकार: मनोज बाजपेयी, तब्बू, अन्नू कपूर

निर्देशक: मुकुल अभ्यंकर

निर्माता: मनोज बाजपेयी, शीतल भाटिया, नीरज पांडेय

संगीत: एम.एम. क्रीम


अगर किसी साइको-थ्रिलर मूवी में साइको थोड़ा कम हो, तो भी थ्रिल नाव पार लगा देता है। लेकिन अगर किसी साइको-थ्रिलर फिल्म में थ्रिल को गायब कर दिया जाए तो सारा मजा गायब हो जाता है। मनोज बाजपेयी और तब्बू की ‘मिसिंग’ से थ्रिल मिसिंग है, इसलिए यह फिल्म अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाती।

यह कहानी है सुशांत दूबे (मनोज बाजपेयी) और अपर्णा (तब्बू) की। सुशांत रीयूनियन (हिन्द महासागर में एक द्वीप, जो फ्रांस का क्षेत्र है) का निवासी है और एक रात वह अपर्णा तथा तीन साल की बेटी तितली को लेकर क्रूज से मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुइस आता है। सुशांत वहां के एक खूबसूरत रिसॉर्ट में दो कमरों का स्वीट बुक कराता है। सुबह जब अपर्णा जगती है तो पाती है कि तितली कमरे से गायब है। वह सुशांत को बताती है। दोनों तितली को आसपास ढूंढ़ते हैं, लेकिन वह नहीं मिलती। वे रिसॉर्ट के स्टाफ को यह बात बताते हैं। रिसेप्शनिस्ट समझाती है कि रिसॉर्ट का परिसर बहुत बड़ा है, तितली रिसॉर्ट में ही कहीं होगी, क्योंकि सिक्योरिटी ने किसी बच्ची को बाहर जाते नहीं देखा। अपर्णा अपनी बेटी को ढूंढ़ने के लिए पुलिस की मदद लेना चाहती है, लेकिन सुशांत उसे इसके लिए मना कर देता है। वह उसे खुद ढूंढ़ने की बात कहता है। बहुत देर तक तितली नहीं मिलती तो अपर्णा बहुत चिंतित हो जाती है और पुलिस को फोन कर देती है।

मामले की जांच करने के लिए मॉरीशस पुलिस के काबिल और सख्त ऑफिसर रामखेलावन बुद्धू (अन्नू कपूर) अपनी टीम के साथ रिसॉर्ट पहुंचते हैं। सुशांत और अपर्णा से पूछताछ के क्रम में उन्हें मामले में कई झोल दिखाई देते हैं। अपर्णा से मिली जानकारी के आधार पर वह रिसॉर्ट में ही ठहरे एक व्यक्ति को एक मॉल से पकड़ कर लाते भी हैं, लेकिन मामला सुलझने की बजाय और उलझ जाता है। रामखेलावन को लगता है कि कहीं कुछ अस्वाभाविक है, लेकिन वह समझ नहीं पाते कि क्या गड़बड़ है? जब तक उन्हें कुछ पता लगता है, तब तक सुशांत और अपर्णा रिसॉर्ट से भाग कर जंगल में पहुंच चुके होते हैं...

कहानी का प्लॉट अच्छा है, लोकेशन भी अच्छी है, लेकिन इस आइडिया को अच्छी तरह से विकसित नहीं किया गया है। निर्देशक मुकुल अभ्यंकर इसे सही ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाए हैं। एक साइको-थ्रिलर फिल्म में जो रोमांच, जो बैकग्राउंड संगीत, एनर्जी होनी चाहिए, वह इस फिल्म में नहीं है। सारी चीजें एकदम सपाट ढंग से चलती है, एक बंधे-बंधाए ढर्रे पर। फिल्म उबाती तो नहीं है, लेकिन मजा भी नहीं देती। अगर पूछा जाए कि इस फिल्म को देखने क्यों जाएं? तो इस सवाल का उत्तर देना मुश्किल है।

ऐसी फिल्मों में पटकथा, बैकग्राउंड संगीत और कलाकारों का अभिनय ‘हाई-प्वाइंट’ होता है, लेकिन इसकी पटकथा ढीली है, बैकग्राउंड संगीत भी बेअसर है। जहां तक अभिनय की बात है तो फिल्म की स्टार-कास्ट अच्छी है। मनोज बाजपेयी अपने किरदार में पूरी तरह फिट हैं। वह एक बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन कई बार वह ‘मेथड एक्टिंग’ के चक्कर में फंस जाते हैं, जिसके कारण स्वाभाविकता से दूर हो जाते हैं। तब्बू के किरदार में कई परते हैं और उन्होंने उसे ठीक से निभाया है, लेकिन उनके अभिनय में ताजगी की थोड़ी कमी नजर आती है। इस किरदार में थोड़ी और एनर्जी की जरूरत थी। पुलिस अधिकारी के रूप अन्नू कपूर अच्छे हैं, लेकिन कई बार ‘ओवरएक्टिंग’ करते नजर आते हैं। बाकी के कलाकार भी अपने किरदार में ठीक हैं।

मुकुल अभ्यंकर का निर्देशन असरदार नहीं है। संपादन भी बहुत अच्छा नहीं है। हां, फिल्म की सिनमेटोग्राफी जरूर प्रभावित करती है। कई दृश्य आंखों को भले लगते हैं। एम. एम. क्रीम का संगीत याद रह पाने लायक नहीं है। निर्माता के रूप में यह मनोज बाजपेयी की पहली फिल्म है, लेकिन उन्होंने इस क्षेत्र में आगाज करने के लिए एक कमजोर पटकथा का चुनाव किया है।

इस फिल्म की उपलब्धि बस इतनी है कि इसे देखते वक्त करीब दो दशक पहले (फरवरी 1999) आई मनोज बाजपेयी की ही साइको-थ्रिलर ‘कौन’ की याद आती है। इसके अलावा दोनों में कोई तुलना नहीं है। यह एक ऐसी फिल्म है, जो आपके सामने आ जाए तो आप बस यूं ही देख लेते हैं। न आपको अच्छा लगता है, न बुरा लगता है, बस कुछ समय गुजर जाता है।

(Livehindustan.com में 6 अप्रैल और हिन्दुस्तान में 7 अप्रैल को प्रकाशित)


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