वेब सीरीज पाताल लोक की समीक्षा

सेक्यूलरिज्म का नया शाहकार ‘पाताल लोक’

राजीव रंजन

निर्माता: अनुष्का शर्मा

निर्देशक: अविनाश अरुण और प्रोसित रॉय

लेखक: सुदीप शर्मा

कलाकर: जयदीप अहलावत, नीरज काबी, अभिषेक सिंह, ईश्वाक सिंह, गुल पनाग, जगजीत संधू, आसिफ खान, मेरेम्बम रोनाल्डो सिंह, स्वस्तिका मुखर्जी, अनूप जलोटा, राजेश शर्मा, निहारिका लायरा दत्त, विपिन शर्मा, आकाश खुराना, मनीष चौधरी, बोधिसत्व शर्मा

पाताल लोक का पहला सीन। मुख्य किरदार दिल्ली के आउटर यमुना पार थाने का इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी (जयदीप अहलावत) अपने जूनियर इमरान अंसारी (ईश्वाक सिंह) से कहता है- ‘ये जो दुनिया है न, उसमें तीन दुनिया है। सबसे ऊपर है स्वर्ग लोक, जिसमें देवता रहते हैं। बीच में धरती लोक, जिसमें आदमी रहते हैं और सबसे नीचे पाताल लोक, जिसमें कीड़े रहते हैं।’ ऐसा शास्त्रों में लिखा है, लेकिन उसने वॉट्सएप्प पर पढ़ा है।

इस दुनिया में एक चौथा लोक भी है और भारत में तो यह बहुत जबर्दस्त लोक है। इसके बारे में हाथीराम चौधरी नहीं बताता, क्योंकि यह बताने की नहीं, दिखाने की चीज है और पूरी सीरीज में दिखाई भी देती है। और हां, ये न तो शास्त्रों में लिखा है और न ही उसने वॉट्सएप्प पर पढ़ा है। यह लोक है- सेक्यूलर लोक, जिसमें स्वयंभू बुद्धिजीवी रहते हैं। इस लोक के निवासी खुद को देवताओं से भी ऊपर मानते हैं, इसलिए चाहते हैं कि वे जो भी कहें, लोग बस मान लें, कोई सवाल न करें। जो नहीं मानता, उनकी नजर में वह हत्यारा है, फासिस्ट है, सांप्रदायिक है। वह कहें कि निर्ममता से किसी को कत्ल कर देने वाले में इनसानियत होती है, तो आप बिना किसी हील-हुज्जत के मान लीजिए, वरना विशेषण आपके लिए तैयार हैं। इस लोक के निवासियों की एक और बहुत बड़ी खासियत है। उनके अनुसार, इस देश में जो कुछ भी खराब है, उसके लिए हिन्दू जिम्मेदार हैं।
अब देखते हैं पाताल लोक का एक और दृश्य। एक ट्रेन में एक हिन्दू महिला अपनी किशोर बेटी के साथ बैठी है। उसके सामने वाली बर्थ पर एक मुसलमान सज्जन अपने किशोर बेटे के साथ बैठे हैं। किशोर लड़का और लड़की नजरों नजरों में एक दूसरे को देखते हैं। लड़की की मां को यह नागवार गुजरता है, क्योंकि लड़का मुसलमान है। ऐसा कहा नहीं है, लेकिन अगले सीक्वेंस को देख कर इसका अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं। अब मेरे कुंद दिमाग में एक सवाल यह उठता है कि अगर वो लड़का हिन्दू होता, तो क्या उसकी मां नैन मटक्का पर खुश होती? अब पता नहीं, ये तो सीरीज बनाने वाले ही बता सकते हैं। मैं बस अपना अनुभव साझा कर सकता हूं। मैंने ट्रेन में बहुत यात्राएं की हैं। किशोरावस्था में भी, जवानी में भी, लेकिन आज तक किसी हिन्दू मां-बाप (जाहिर है, बेटी या बेटियों के साथ सफर करने वाले) ने मुझे कभी हिन्दू होने का बेनिफिट नहीं दिया! जब कभी किसी लड़की के सामने वाली सीट पर बैठ कर सफर करने का सौभाग्य मिला, उसके मां-बाप ने उसे सबसे ऊपर वाली बर्थ पर भेज दिया, ताकि बात आगे बढ़ने की कोई गुंजाइश ही न बचे।

बहरहाल, इसी दृश्य के अगले सीक्वेंस में मुसलमान सज्जन अपना लंच बॉक्स खोलते हैं, जिसमें लजीज मटन या चिकन है। यह देखते ही महिला को उल्टी आ जाती है। वह खिड़की की ओर भागती है और मुसलमानों के प्रति उसकी नफरत और गहरी हो जाती है। इसका प्रमाण यह है कि मुसलमान लड़का जब महिला को पानी की बोतल देता है, तो वह उसे झटक देती है। इस दृश्य को देखने के बाद मुझे दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि मेरे स्वर्गीय पिताजी घोर सांप्रदायिक थे। वह शुद्ध शाकाहारी थे, मांसाहारी भोजन गलती से दिख भी जाता था, तो पूरे दिन खाना नहीं खा पाते थे। वे उन रस्तों से गुजरना भी पसंद नहीं करते थे, जहां मटन, चिकन, मछली आदि की दुकानें होती थीं। वे इतने सांप्रदायिक थे कि उन्हें मांसाहार की गंध ही नहीं बर्दाश्त थी। इसमें गलती मेरी घोर शाकाहारी दादी की भी थी, जिसने पिताजी को इत्ता थोड़ा-सा भी सेक्यूलर नहीं बनाया कि वे मांसाहार की गंध भी बर्दाश्त कर सकें।
एक और सीन देखते हैं। इमरान अंसारी यूपीएससी का मेन्स क्लियर कर चुका है और इंटरव्यू की तैयारी कर रहा है। एक हिन्दू लड़का उसको ताना मारता है कि उसका तो हो ही जाएगा, क्योंकि संघ लोक सेवा आयोग को मुसलमानों का प्रतिनिधित्व भी तो दिखाना है। यानी इस देश में जो भी मुसलमान सिविल सेवाओं में चुना जाता है, हिन्दुओं की नजर में वह ‘रिप्रेजेंटेशन स्कीम’ के तहत चुना जाता है, योग्यता के आधार पर नहीं। और देखिए, रिप्रेजेंटेशन भी क्या गजब का कि आमिर सुबहानी और शाह फैसल को टॉप ही करा दिया जाता है!

एक सीन और देखिए। ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा लगाते हुए लोग एक ट्रेन में घुस जाते हैं और एक मुस्लिम युवक को जान से मार डालते हैं। संयोग से वह युवक इस सीरीज के एक अहम पात्र कबीर एम. का बड़ा भाई होता है। इस दृश्य से ऐसा प्रतीत होता है कि राम मंदिर आंदोलन के समय कारसेवक नारा लगाते हुए किसी भी ट्रेन में घुस जाते थे और निर्दोष मुसलमानों की हत्या कर देते थे। वैसे इस सीन का सीरीज कहानी से संबंध बड़े कौशल के साथ जोड़ा गया है। कुछ वैसे ही जैसे मैं मॉडल टाउन से आजादपुर जाने के रूट को कुछ इस तरह जोड़ता हूं। मॉडल टाउन से आजादपुर का सीधा रास्ता महज दो किलोमीटर का है, लेकिन मेरा मन कमला नगर, घंटाघर देखने का भी होता है, तो मैं कमला नगर, घंटाघर का चक्कर लगाते हुए घंटाघर से 19 नंबर की बस पकड़ता हूं और कुल सात-आठ किलोमीटर की दूरी तय करते हुए आजादपुर पहुंचता हूं।
खैर, भूमिका ज्यादा हो गई। अब सीरीज की कहानी पर आते हैं। डीसीपी भगत (विपिन शर्मा) की टीम दिल्ली शहर के बेहद भीड़भाड़ वाले ब्रिज पर चार दुर्दांत अपराधियों- विशाल हथौड़ा त्यागी (अभिषेक बनर्जी), तोप सिंह उर्फ चाकू (जगजीत संधू), कबीर एम. (आसिफ खान) और मैरी लिंग्दोह उर्फ चीनी (मैरेम्बम रोनाल्डो सिंह) को गिरफ्तार करती है। हालांकि भगत की टीम का इरादा इन चारों का एनकाउंटर करने का था, लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाते, क्योंकि मौके पर एक चैनल की टीम भी मौजूद थी। उनका क्यों एनकाउंटर किया जाना था, यह बाद में पता चलता है। ये चारों अपराधी भारत के प्रसिद्ध लेफ्ट लिबरल एंकर संजीव मेहरा (नीरज काबी) की हत्या करने के मिशन पर थे, लेकिन नहीं करते। दरअसल उस ग्रुप के मुखिया हथौड़ा त्यागी को कुत्तों से बहुत प्यार है। जो लोग कुत्तों को प्यार करते हैं, वह बहुत अच्छे आदमी होते हैं- तो हथौड़े से किसी का भी भेजा जमीन पर बिखेर देने वाला हथौड़ा अपने मास्टरजी के इस आप्त वचन को दिल में इस तरह बसाए हुए है कि जो लोग कुत्तों से प्यार करते हैं, उन पर हथौड़ा नहीं चला पाता। और पते की बात है कि बात है कि संजीव मेहरा की बीवी डॉली (स्वस्तिका मुखर्जी) कुत्तों से बुहत प्यार करती है।

खैर, वह एरिया हाथीराम के थाना क्षेत्र में आता है। संयोग से केस सुलझाने का जिम्मा उसे ही मिल जाता है। हाथीराम को अपना नंबर बढ़ा कर प्रोमोशन पाने के मौके का बरसों से इंतजार है, लिहाजा वह अपने जूनियर इमरान के साथ जी-जान से तफ्तीश में जुट जाता है। लेकिन मामला सुलझने की बजाय उलझता जाता है, उलझा दिया जाता है। नतीजतन केस सीबीआई को सौंप दिया जाता है और हाथीराम को सस्पेंड कर दिया जाता है। सीबीआई एक ही दिन में पता लगा लेती है कि इन चारों के तार आतंकी संगठनों से जुड़े हैं और एक लेफ्ट लिबरल एंकर को मार कर दक्षिणपंथी सरकार की छवि खराब करना चाहते हैं, ताकि चुनावों में उसे इस हत्या का खामियाजा भुगतना पड़े। हाथीराम को इस थ्योरी पर यकीन नहीं है, इसलिए वह सस्पेंड होने के बाद भी सच्चाई का पता लगाने में जुटा रहता है। इस केस को सुलझाने के पीछे एक वजह और है। वह नहीं चाहता कि आधी जिंदगी तक अपने बाप की नजर में चुतिया बने रहने के बाद बाकी की आधी जिंदगी अपने बेटे की नजर में भी वह चुतिया बना रहे। वह इस केद के जरिये खुद को साबित करना चाहता है, इसलिए अपनी जान की बाजी लगा कर भी केस में जुटा रहता है। और इस क्रम में वह राजनीति, अपराध, मीडिया, जाति, धर्म (हिन्दू) के गठजोड़ को बहुत नजदीक से देखता है...
ये जो चारों आरोपी हैं, उनका अतीत बहुत मार्मिक है। इसमें हथौड़ा और तोप सिंह का अतीत तो इतना मार्मिक है कि दोनों को अपराधी कहने में भी पाप लगता है। उन्हें लेकर आपके मन में कुछ सवाल उठेंगे, लेकिन तुरंत ही बैठ जाएंगे, क्योंकि दोनों का अतीत बहुत ही मार्मिक है। दोनों बहुत ज्यादा सताए हुए हैं। और हां, ये चारों अपराधी बाटला हाउस के किसी मकान में ठहरे हुए थे, तो इस तरह यह सीरीज इशारों-इशारों में यह भी समझा देती है कि बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था। कहने को तो यह वेब सीरीज एक क्राइम थ्रिलर है, लेकिन इसमें हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों को जिस तरह से पेश किया गया है, उसे देखने के बाद लगता है कि इसे किसी खास उद्देश्य के तहत बनाया गया है।

सिनेमाई मानकों पर यह वेब सीरीज खरी उतरती है। इसके लेखक सुदीप शर्मा हैं, जिन्होंने पंजाब विधानसभा चुनावों से करीब 7-8 महीने रिलीज हुई फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ का स्क्रीनप्ले और संवाद लिखे थे। सुदीप शर्मा ने इस वेब सीरीज का नैरेटिव बहुत चतुराई और कौशल के साथ गढ़ा है। कुछ कमियों को छोड़ दिया जाए, तो स्क्रिप्ट कसी हुई है। संवाद भी असरदार हैं। दूसरे वेब सिरीज की तरह इसमें सेक्स नहीं ठूंसा गया है। सेक्स के बस एकाध छोटे-से दृश्य हैं, बहुत हल्के वाले। हां, ‘स्क्रिप्ट की डिमांड’ पर गालियां जम कर हैं। हिंसा के दृश्य भी हैं। कई एपिसोड में गति कई जगह धीमी होती है, लेकिन जल्दी ही पटरी पर ठीक से दौड़ने लगती है। बैकग्राउंड संगीत सीरीज के मिजाज के मुताबिक है। कैमरा वर्क बहुत बढ़िया है। अविनाश अरुण और प्रोसित रॉय का निर्देशन अच्छा है। सीरीज पर दोनों ने पकड़ बनाए रखी है और इसे ज्यादा इधर-उधर भटकने नहीं दिया है। अगले एपिसोड की उत्सुकता बनी रहती है। दोनों ने अपने कथ्य को पूरे कौशल से पेश किया है।
‘पाताल लोक’ की जो सबसे याद रह जाने लायक बात है, वह है अभिनय। इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी की भूमिका के लिए जयदीप अहलावत लंबे समय तक याद किए जाएंगे। एक फ्रस्टेट, मगर इमानदार पुलिस ऑफिसर के रूप में उनकी भाव-भंगिमाएं, देह-भाषा, संवाद अदायगी अभिभूत कर देती है। वहीं पारिवारिक मोर्चे पर पिता द्वारा नाकारा समझे जाने वाले बेटे और किशोर बेटे द्वारा उपेक्षित पिता की पीड़ा को उन्होंने इतनी जीवंतता से निभाया है कि दर्शक उनकी पीड़ा से एकाकार हो जाते हैं। वह इस सीरीज के मुख्य किरदार हैं और इसकी जान भी। एंकर संजीव मेहरा की भूमिका में नीरज काबी खूब जमे हैं। अपने किादार में वह बहुत स्वाभाविक लगे हैं। किरदार की हर परत को उन्होंने जिस तरह उभारा है, वह शानदार है। निस्संदेह वह एक बेहतरीन अभिनेता हैं। उनकी पत्नी डॉली की भूमिका में स्वस्तिका मुखर्जी असर छोड़ती हैं। खासकर स्ट्रीट डॉग सावित्री की देखभाल वाले सीन में तो वह अभिभूत करती हैं।

इमरान अंसारी के किरदार के विभिन्न पहलुओं को ईश्वाक सिंह ने अच्छे से निभाया है। वह प्रभावित करते हैं। विशाल हथोड़ा त्यागी की भूमिका में अभिषेक बनर्जी ने सधा हुआ अभिनय किया है। हाथीराम चौधरी की पत्नी रेणु के रूप में गुल पनाग के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन जो भी था, उन्होंने उसे ठीक से किया है। संजीव मेहरा की करीबी पत्रकार सारा की भूमिका में निहारिका प्रभावित करती हैं। दक्षिणपंथी पार्टी के नेता की छोटी-सी भूमिका में अनूप जलोटा भी अच्छे लगे हैं। राजेश शर्मा अच्छे अभिनेता हैं और ग्वाला गुर्जर की भूमिका में उन्होंने अपनी इस साख को कमजोर नहीं होने दिया है। हाथीराम चौधरी के किशोर बेटे सिद्धार्थ चौधरी के रूप में बोधिसत्व शर्मा का अभिनय बहुत अच्छा है, छाप छोड़ने वाला है। तोप सिंह के रूप में जगजीत संधू, कबीर एम. की भूमिका में आसिफ खान, चीनी की भूमिका में मैरेम्बम रोनाल्डो सिंह, डीसीपी भगत के रोल में विपिन शर्मा, मीडिया कंपनी के मालिक मि. सिंह की भूमिका में आकाश खुराना, उद्योगपति विक्रम कपूर की भूमिका में मनीष चौधरी अच्छे रहे हैं। बाकी कलाकारों ने भी अपना काम कायदे से किया है।

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