रथ में बैठ कर बलभद्र जी और सुभद्रा जी के साथ मौसी के घर जाते हैं भगवान जगन्नाथ

जगन्नाथपुरी रथ यात्रा (12 जुलाई) पर विशेष

राजीव रंजन

हिन्दू धर्म में चार धामों का बहुत महत्त्व है। इन्हीं में से एक धाम जगन्नाथ पुरी भारत के पूर्वी हिस्से में स्थित है। भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण का रूप हैं जगन्नाथ, यानी जगत के स्वामी। पुरी को ‘पुरुषोत्तम क्षेत्र’ व ‘श्री क्षेत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।


पुरी में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल है भगवान जगन्नाथ का मंदिर, जहां वह अपने दाऊ बलभद्र जी और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं। कहते हैं कि सबसे पहले भगवान जगन्नाथ की पूजा आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में की थी। इस मंदिर का निर्माण राजा इंद्रद्युम्न ने कराया था। वर्तमान मंदिर का निर्माण राजा चोडगंग देव ने 12वीं शताब्दी में कराया था। मंदिर का स्थापत्य कलिंग शैली का है।

जगन्नाथ मंदिर के मुख्य भाग को श्री मंदिर कहा जाता है। इसमें रत्नवेदी पर भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की काष्ठ प्रतिमाएं स्थापित हैं। रत्नवेदी के एक ओर बड़ा-सा सुदर्शन चक्र  है और नीलमाधव लक्ष्मी, सरस्वती की छोटी प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर प्रांगण में ही श्री विश्वनाथ लिंग है, जो काशी विश्वनाथ के समान ही फल देने वाला माना जाता है। मंदिर के सामने एक मुक्ति मंडप है और उसके पीछे की ओर रोहिणी कुंड है। इसी के समीप श्री विमला देवी का आकर्षक मंदिर है, जो 52 शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है, यहां मां सती की योनि गिरी थी। जगन्नाथ मंदिर परिसर में कई छोटे- बड़े मंदिर हैं। यहां एक वट वृक्ष है, जिसे कल्पवृक्ष कहा जाता है।  

रथयात्रा

हर साल यहां आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से रथयात्रा का आयोजन होता है। श्री जगन्नाथजी, बलभद्रजी और सुभद्राजी रथ में बैठकर अपनी मौसी के घर, तीन किलोमीटर दूर गुंडीचा मंदिर जाते हैं। लाखों लोग रथ खींच कर तीनों को वहां ले जाते हैं। फिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को तीनों वापस अपने स्थान पर आते हैं। रथयात्रा को देखने के लिए लाखों लोग देश-विदेश से पुरी आते हैं।


तीन विशाल रथों पर तीन मूर्तियां अलग-अलग रखी जाती हैं और रानी गुंडीचा के महल तक यात्रा होती है। जगन्नाथ की मौसी के मंदिर में तीनों मूर्तियों रखी जाती हैं और 9 दिन के बाद वहां से वापसी यात्रा भी उसी धूमधाम से होती है, जिसे उल्टा रथ कहते है। अनेक भक्त उपवास रख कर रथ खींचते हैं।

रथों का निर्माण

रथयात्रा की तैयारी वसंत पंचमी से शुरू हो जाती है। इस दिन से रथों के लिए काष्ठ, जिन्हें ‘दारु’ कहते हैं, का चुनाव शुरू हो जाता है। वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया यानी अक्षय तृतीया से रथों का निर्माण शुरू हो जाता है। जगन्नाथ जी का रथ ‘नंदीघोष’ 45.6 फीट ऊंचा होता है। इसके निर्माण में काष्ठ के 832 टुकड़ों का प्रयोग होता है। इसमें 16 पहिये लगे होते हैं। यह लाल और पीले रंग का होता है। बलराम जी का रथ ‘तालध्वज’ 45 ऊीट ऊंचा होता है और इसका निर्माण काष्ठ के 763 टुकड़ों से किया जाता है। इसमें 14 पहिये होते हैं और इस रथ का रंग लाल तथा नीलापन लिए हुए हरा होता है। सुभद्रा जी का रथ ‘दर्पदलन’ 44.6 फीट ऊंचा होता है, जो काष्ठ के 593 टुकड़ों से निर्मित होता और इसमें 12 पहिये होते हैं। इस रथ का रंग लाल और काला होता है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटों का उपयोग नहीं होता। जब तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब ‘छर पहनरा’ अनुष्ठान होता है। इसमें पुरी के गजपति राजा पालकी में आते हैं और मूर्तियों की विधि-विधान से पूजा करते हैं और सोने की झाड़ू से रथ मंडम और रास्ते को साफ करते हैं।


जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होती है और तीनों रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।

कहते हैं कि रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाजा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती हैं और ‘हेरा गोहिरी साही पुरी’ नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं।

बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी को मनाने की परंपरा भी है। यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है।


खिचड़ी भोग

जगन्नाथ मंदिर के खिचड़ी भोग की बहुत महिमा है। इसकी एक रोचक कथा है। जगन्नाथ पुरी में एक महिला रहती थी कर्माबाई, जो जगन्नाथजी की पूजा पुत्र रूप में करती थी। एक दिन उसकी इच्छा भगवान को अपने हाथों से बनाकर कुछ खिलाने की हुई। अपनी भक्तिन माता की इच्छा जान भगवान उसके सामने प्रकट हो गए और बोले- माता, बहुत भूख लगी है। कर्माबाई ने खिचड़ी बनाई थी। भगवान ने बहुत रुचि के साथ खिचड़ी खाई और कहा- मां, मेरे लिए रोज खिचड़ी बनाया करो। एक दिन एक महात्मा कर्माबाई के पास आए। उन्होंने सुबह-सुबह कर्माबाई को बिना स्नान किए खिचड़ी बनाते देखा तो कहा कि पूजा-पाठ के नियम होते हैं। रसोई की सफाई करके, नहा-धोकर, भगवान का भोग तैयार करना चाहिए। अगले दिन कर्माबाई ने ऐसे ही किया। ये सब करने में कर्माबाई को देर हो गई। तभी भगवान खिचड़ी खाने पहुंच गए। बोले- शीघ्र करो मां, उधर मेरे मंदिर के पट खुल जाएंगे। जब कर्माबाई ने खिचड़ी बनाकर परोसी, तो वह जल्दी-जल्दी खाकर बिना पानी पिए मंदिर को भागे। उनके मुंह पर जूठन लगी रह गई थी।

मंदिर के पुजारी ने जब यह देखा, तो पूछा- यह क्या है भगवन्! भगवान ने कर्माबाई के यहां रोज सुबह खिचड़ी खाने की बात बताई। कर्माबाई को भोग का नियम समझाने वाले महात्मा जी को भगवान के मुंह पर जूठन लगने की बात मालूम हुई, तो उन्हें भी समझ आ गया कि भगवान भाव के भूखे होते हैं, नियम-कानून के नहीं। वे बहुत लज्जित हुए। भगवान के खिचड़ी खाने और कर्माबाई के स्नेह से खिलाने का यह क्रम चलता रहा। फिर एक दिन वृद्ध कर्माबाई की मृत्यु हो गई। मंदिर के पुजारी ने देखा, भगवान की आंखों से अश्रुधारा बह रही है। पुजारी ने कारण पूछा तो भगवान ने बताया- मेरी मां परलोक चली गई, अब मुझे इतने स्नेह से खिचड़ी कौन खिलाएगा! पुजारी ने कहा- प्रभु! यह काम हम करेंगे। तब से जगन्नाथ जी के मंदिर में प्रात:काल भगवान को खिचड़ी का भोग लगाने की परम्परा चली आ रही है।



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