दरमियाँ

मख्मूर सईदी

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया है दीवारो-दर के दरमियाँ

एक साअत थी कि सदियों तक सफर करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ

वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम सहते रहें
है यही रिश्ता पुराना संग-ओ-सर के दरमियाँ

किसकी आहट पर अंधेरों के कदम बढ़ते गए?
रहनुमा था कौन इस अंधे सफर के दरमियाँ

बस्तियां 'मख्मूर' यूं उजड़ी कि सहरा हो गईं
फासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ


साअत- क्षण
संगो-सर- पत्थर और सर

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