दिल को तसल्ली देती है ये रेड
राजीव रंजन
ढाई स्टार (2.5 स्टार)
कलाकार: अजय देवगन, सौरभ शुक्ला, इलियाना डिक्रूज, अमित सियाल, पुष्पा जोशी, गायत्री अय्यर, शीबा चड्ढा
निर्देशक: राजकुमार गुप्ता
निर्माता: भूषण कुमार, कुमार मंगत पाठक, अभिषेक पाठक, किशन कुमार
पटकथा व संवाद: रितेश शाह
प्रचंड तपिश में
बारिश की कुछ बूंदें भले ही मौसम न बदल पाएं, लेकिन थोड़ी राहत तो देती ही हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी
व्यवस्था को कुछ ईमानदार अफसर बदल तो नहीं पाते, लेकिन उम्मीद के दिए को जलाए रखते हैं। ‘रेड’ एक ऐसे ही आयकर अधिकारी की कहानी है, जो हर तरह के जोखिम उठा कर अपना काम ईमानदारी से करते रहता है। यहां तक कि
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भी यह कहने को मजबूर हो जाते हैं कि ऐसे लोगों से ही
अर्थव्यवस्था के पहिए चलते हैं और इनके लिए एकाध रसूखदार लोगों की कुर्बानी दी जा
सकती है। यह फिल्म उत्तर प्रदेश में1980 के दशक में आयकर छापेमारी की सच्ची घटना पर आधारित है, जिसके बारे में फिल्मकारों का दावा है कि वह देश में सबसे
ज्यादा समय तक चली रेड थी।
अमय पटनायक (अजय
देवगन) एक ईमानदार आयकर अधिकारी है। सात साल में उसके 49 तबादले हो चुके हैं। 49वीं बार उसका तबादला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में होता
है। वह अपनी पत्नी मालिनी (इलियाना डिक्रूज) के साथ अपनी छोटी-सी गृहस्थी लेकर
लखनऊ आता है। वह सरकार का कर संग्रह बढ़ाने के लिए वैसे लोगों की सूची तैयार करता
है, जिन्होंने कर चोरी की है।
वह उनके यहां छापा मारने की योजना बनाता है। इसी दौरान उसे गुप्त सूचना मिलती है
कि इलाके सबसे प्रभावशाली सांसद और दबंग नेता रामेश्वर सिंह उर्फ ताऊजी (सौरभ
शुक्ला) के यहां अरबों रुपये का काला धन छिपा हुआ है। इस सूचना के आधार पर पटनायक
सीतागढ़ स्थित ताऊजी के घर पर रेड मारने का फैसला लेता है। ताऊजी के यहां छापा
मारने के दौरान उसके सामने कई चुनौतियां आती हैं। दबाव, डर से लेकर प्रलोभन तक। जाहिर है, वह इन सबके सामने नहीं झुकता।
बॉलीवुड में
बहादुर और ईमानदार अफसरों को लेकर जो फिल्में बनती हैं, उनमें ज्यादातर पुलिस अधिकारियों पर ही होती हैं। कम
फिल्मकारों ने ही दूसरे सरकारी अफसरों की ईमानदारी को बड़े पर्दे पर फिल्माया है।
निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने ‘रेड’ के जरिये ऐसा ही कुछ प्रयास किया है। फिल्म का
केंद्रीय विषय तो एक राजनेता के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ईमानदार अफसर की ‘रेड’ है, लेकिन इस बहाने राजकुमार
गुप्ता ने कुछ और पहलुओं को भी छुआ है। मसलन आयकर विभाग के लोग ही पैसा खाकर कर
चोरों का साथ देते हैं। राजनीतिक गलियारों में लोग किस तरह से अपने रसूख का
इस्तेमाल कर दबाव बनाने का काम करते हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि सत्ता के शीर्ष पर
बैठे लोग कैसे अपने क्षत्रपों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं।
करीब दो घंटे की
यह फिल्म पहले ही दृश्य से अपना असर छोड़ना शुरू कर देती है। खासकर पहले हाफ में यह
बहुत कसी हुई है। दूसरे हाफ में यह थोड़ी ढीली पड़ती है, लेकिन क्लाइमैक्स में अपनी रफ्तार पकड़ लेती है। छापे की
कार्रवाई को राजकुमार गुप्ता ने काफी अच्छे ढंग से पेश किया है। आमतौर पर फिल्मों
में इस तरह के दृश्यों को बहुत तेजी से निपटा दिया जाता है, लेकिन इस फिल्म में पूरे विस्तार से दिखाया गया है, बल्कि सबसे ज्यादा समय इस दृश्य को ही दिया गया
है। फिल्म को यथार्थ रूप देने की कोशिश की गई है, लेकिन इसमें कई जगह नाटकीयता भी है। जब किसी के घर रेड पड़ती
है तो वहां से किसी को अंदर-बाहर आने-जाने या टेलीफोन करने की अनुमति देना जैसी
बातें पचती नहीं हैं। इस तरह के एकाध दृश्य ही विषय-वस्तु की प्रामाणिकता को हल्का
करते हैं। अमिय पटनायक का छापे के दौरान ताऊजी को घर से बाहर जाने देने का फैसला
भी नाटकीय और ‘हीरोगीरी’
वाला मामला लगता है। लेकिन ऐसा लगता है कि यहां
निर्देशक के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे। फिल्म में रेड की केवल एक ही घटना है,
और फिल्म को केवल उसी पर केंद्रित रख कर उसे
यथार्थ रूप तो दिया जा सकता था, लेकिन इससे उसके
बोझिल होने का खतरा भी था। और जाहिर है, निर्देशक ने बीच का रास्ता चुना। थोड़ा यथार्थ और थोड़ी नाटकीयता।
राजकुमार गुप्ता
ने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म ‘आमिर’ से ही प्रभावित किया था और अगली फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ से अपनी अच्छे निर्देशक की छवि को और मजबूत किया था। लेकिन ‘घनचक्कर’ ने उनकी छवि को आघात पहुंचाया था। अब ‘रेड’ के जरिये वह एक बार फिर पटरी पर लौटे हैं और प्रभावित करने में सफल रहे हैं।
फिल्म की पटकथा और संवाद दमदार हैं। फिल्म की एडिटिंग और सिनमेटोग्राफी भी प्रशंसा
के लायक है। लेकिन कुछ बातें खटकती भी हैं। इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री के पास
कोई क्षेत्रीय क्षत्रप (चाहे वह कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो) उस तरह से
सौदेबाजी नहीं कर सकता था, जैसा फिल्म में
दिखाया गया है। फिल्म का गीत-संगीत भी प्रभावित नहीं करता। ‘सानू एक पल चैन न आवे’ और ‘नित खैर मंगदा’
कर्णप्रिय हैं, लेकिन मौलिक नहीं हैं, इन्हें रीक्रिएट किया गया है। नुसरत साहब के इन गानों का
श्रेय तो फिल्म के गीतकार और संगीतकार को कतई नहीं दिया जा सकता। इनके अलावा जो
बाकी गाने हैं, वो याद रहने लायक
नहीं हैं।
बहरहाल, फिल्म का सबसे अधिक प्रभावित करने वाला पक्ष है
मुख्य किरदारों का अभिनय। अजय देवगन का इस फिल्म में अमिय पटनायक का जो किरदार है,
वह ‘गंगाजल’ के एसपी अमित
कुमार की याद दिलाता है। इसे अजय ने अपने उसी पुराने अंदाज में निभाया है, जिसके लिए वह जाने जाते हैं। उनका अभिनय बहुत
नपा-तुला और नियंत्रित है। एक जिम्मेदार अधिकारी और पत्नी को प्यार करने वाले पति
के अपने किरदार के दोनों परतों को उन्होंने अच्छे-से उभारा है। उनके चेहरे पर
कर्तव्यनिष्ठा, चिंता, भय और द्वंद्व के भाव बहुत सहज रूप में आते
हैं। इलियाना डिक्रूज की भूमिका ज्यादा नहीं है, लेकिन जितनी भी है, उसे उन्होंने अच्छे-से निभाया है। दादी की भूमिका में पुष्पा जोशी बहुत ‘क्यूट’ लगी हैं। इस गंभीर फिल्म में दादी और लल्लन सुधीर (अमित सियाल) ही कुछ
हल्के-फुल्के क्षण लेकर आते हैं। अमित सियाल को भी जब मौका मिलता है, वह अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। और सौरभ
शुक्ला का तो कहना ही क्या! पूर्वांचल के एक दबंग नेता के किरदार में उन्हें
स्वाभाविकता के रंग भर दिए हैं। उनका अभिनय शानदार है। ताऊ जी और अमिय पटनायक के ‘मुठभेड़’ के दृश्य उस टेस्ट मैच का मजा देते हैं, जिसमें गेंदबाज सात स्लिप लगाकर लगातार ऑफ
स्टंप पर गेंदबाजी करता है और बल्लेबाज हर गेंद को विकेटकीपर के दस्तानों में जाने
देता है। लेकिन जैसे ही गेंदबाज कोई ढीली गेंद करता है, बल्लेबाज उसे बाउंड्री के पार पहुंचा देता है। यह फिल्म
दर्शकों को इंगेज करके रखती है, इसे देखने के लिए
सिनेमाहॉल में रेड मार सकते हैं।
(हिन्दुस्तान
में 17 मार्च 2018 को प्रकाशित)
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