सोच की हिचकियां तोड़ती ‘हिचकी’

राजीव रंजन

कलाकार: रानी मुखर्जी, नीरज कबी, हर्ष मायर, सचिन पिलगांवकर, सुप्रिया पिलगांवकर, शिवकुमार सुब्रमण्यम, आसिफ बसरा
निर्देशक: सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा
लेखक: अंकुर चौधरी और सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा

तीन स्टार (3 स्टार)



पिछले कुछ वर्षों में बॉलीवुड ने कहानियों के स्तर पर अपनी सोच को हिचक को तोड़ा है। या यूं कहें कि अपनी सोच को काफी विस्तार दिया है। अब बॉलीवुड वैसी कहानियों को लेकर आ रहा है, जिन्हें पहले ‘सेफ’ नहीं माना जाता था। लेकिन पिछले कुछ सालों में कई निर्देशकों और लेखकों ने इस धारणा को धराशायी किया है। अगर कहानी व पटकथा कायदे से लिखी जाए और उसे रोचक अंदाज में पेश किया जाए, सही तरह से पैकेजिंग की जाए तो दर्शक ‘ऑफ बीट’ कहानियों को भी अपना समर्थन देते हैं। पिछले साल आई ‘हिन्दी मीडियम’, ‘न्यूटन’, ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’, ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ और ‘तुम्हारी सुलु’ तथा इस साल की ‘पैडमैन’ और ‘रेड’ इसका पुख्ता सबूत हैं। रानी मुखर्जी की ‘हिचकी’ भी एक ऐसी ही फिल्म है, जो ब्रैड कोहेन की आत्मकथा ‘फ्रंट ऑफ द क्लास: हाऊ टॉरेर्ट सिंड्रोम मेड मी द टीचर आई नेवर हैड’ पर आधारित है।

यह फिल्म तीन संदेशों को एक साथ प्रभावशाली तरीके से व्यक्त करती है। पहली बात, यह टॉरेट सिंड्रोम के बारे में लोगों को जागरूक करती है और बताती है कि इससे पीड़ित लोग भी सामान्य मनुष्य हैं। दूसरी बात, यह कि कोई छात्र बुरा नहीं होता, बस उन्हें समझकर तराशने वाला टीचर चाहिए। और तीसरी बात, यह कि समान अवसर मिले तो वंचित वर्ग के लोग भी कुछ करके दिखा सकते हैं। निर्देशक सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा और लेखक अंकुर चौधरी व गणेश पंडित ने तीनों संदेशों को एक साथ इस तरीके से बुना है कि वे अलग-अलग होते भी एक हो गए हैं।

सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा और उनके सहयोगी लेखक अंकुर चौधरी व गणेश पंडित ने एक महिला शिक्षक के टॉरेट सिंड्रोम को केंद्र में रखते हुए श्रेष्ठता ग्रंथि से पीड़ित ‘प्रभु वर्ग’ की ‘ईलीट सोच’ पर भी प्रहार किया है। फिल्म इस बात की ओर भी इशारा करती है कि जब हम गुण-दोष को परखे बिना किसी के बारे में पहले से ही धारणा बना लेते हैं, तो उस धारणा को हर कीमत पर सही साबित करने में जुट जाते हैं। और यह प्रवृत्ति जीवन के हर क्षेत्र में नुकसानदायक है। सामने वाले के लिए भी और अपने लिए भी।

नैना माथुर (रानी मुखर्जी) टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित है, इसलिए उसे बार-बार हिचकी आती है। इस वजह से उसे बचपन में 12 स्कूलों ने दाखिला नहीं दिया। अंतत: उसे तेरहवां स्कूल सेंट नॉटकर्स हाई स्कूल दाखिला देता है। वहां नैना को उसके टीचर मिस्टर खान (विक्रम गोखले) बहुत सपोर्ट करते हैं। बड़ी होकर नैना टीचर बनना चाहती है, लेकिन टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित होने की वजह से 18 स्कूल उसे खारिज कर देते हैं। एक बार उसे अपने स्कूल सेंट नॉटकर्स हाई स्कूल में पढ़ाने का मौका मिलता है। उसे क्लास ‘9 एफ’ को पढ़ाने का मौका मिलता है। इस क्लास में पढ़ने वाले सभी 14 बच्चे वंचित तबके के हैं, जिन्हें ‘राइट टू एजुकेशन’ कानून यानी शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत इस ‘पॉश स्कूल’ में पढ़ने का मौका मिला है। कानून ने उन्हें मौका तो दे दिया, लेकिन स्कूल में पढ़ने वाले संपन्न घरों के बच्चे और टीचर इन्हें ‘अपना’ नहीं मानते। लिहाजा, ये बच्चे विद्रोही हो जाते हैं और किसी टीचर को टिकने नहीं देते। नैना के साथ भी वे यही करने की कोशिश करते हैं।

देश और समाज को बेहतर बनाने के लिए व्यवस्था का बेहतर होना बहुत जरूरी है। और व्यवस्था तभी बेहतर होगी, जब उसे चलाने वाले लोग संवेदनशील होंगे। देश के सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा मिले, इसलिए ‘राइट टू एजुकेशन’ कानून बना। लेकिन बड़े स्कूलों के प्रबंधन की भेदभाव भरी नीतियों के कारण यह योजना अपने लक्ष्यों तक पहुंचने में सफल नहीं हो पा रही है। इस फिल्म में यह संदेश भी छिपा हुआ है। खैर, नैना के सामने खुद के टिकने की चुनौती तो है ही, स्कूल प्रबंधन के सामने बच्चों की क्षमता को भी सिद्ध करने की चुनौती है। वह इस काम में अपनी पूरी निष्ठा और जी-जान से जुड़ जाती है, लेकिन उसके प्रयासों के बीच अक्सर बाधा बन कर खड़े हो जाते हैं मिस्टर वाडिया (नीरज कबी)। हालांकि स्कूल के प्रिंसिपल कई बार नैना को सपोर्ट भी करते हैं, लेकिन वे भी कब तक नैना के साथ खड़े होते... दरअसल नैना की लड़ाई किसी व्यक्ति से नहीं, सोच से है।

यह फिल्म अपने विषय और प्रस्तुतीकरण से प्रभावित करती है। इस फिल्म का मिजाज काफी हद तक आमिर खान की ‘तारे जमीन पर’ से मिलता है, लेकिन निर्देशक सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा और लेखक अंकुर चौधरी इसे अलग रंग और अंदाज में पेश करने में कामयाब रहे हैं। आमिर अगर ‘डिस्लेक्सिया’ के बारे में जागरुकता फैलाने में कामयाब रहे थे तो सिद्धार्थ ‘टॉरेट सिंड्रोम’ के बारे में जानकारी देने में सफल नजर आते हैं। फिल्म पहले हाफ में ज्यादा धारदार है, लेकिन दूसरे हाफ में इसकी धार थोड़ी कम होती है। बाद का सारा घटनाक्रम प्रत्याशित है। आगे क्या होगा, यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। सब कुछ एक तयशुदा लाइन पर चलता है। लेकिन इसके बावजूद यह फिल्म दिलचस्पी जगाए रखती है, क्योंकि इसका संदेश दिल को छूता है। फिल्म की फोटोग्राफी अच्छी है और एडिटिंग भी। गीत-संगीत भी फिल्म के मिजाज को सूट करने वाला है।

रानी मुखर्जी समर्थ अभिनेत्री हैं। यह बात उन्होंने अपनी शुरुआती फिल्मों से साबित की थी। वक्त के साथ वह और परिपक्व होती गईं। इस फिल्म में भी वह अपने पूरे उठान पर हैं। वह चार सालों के बाद बड़े पर्दे पर आई हैं और पूरे दमखम तथा दमदार फिल्म के साथ आई हैं। नीरज कबी बहुत अच्छे अभिनेता हैं और यह बात वह किसी तरह की भूमिका में साबित कर देते हैं। मिस्टर वाडिया के रूप में उनका अभिनय सधा हुआ है। नैना के पिता के रूप सचिन पिलगांवकर छोटे-से रोल के बावजूद अच्छे लगे हैं, हालांकि उनकी पत्नी के रूप में सुप्रिया पिलगांवकर (जो वास्तविक जीवन में भी सचिन की पत्नी हैं) के पास ज्यादा स्कोप नहीं था। प्रिंसिपल के रूप में शिवकुमार सुब्रमण्यम भी अच्छे लगे हैं। विद्रोही छात्र आतिश के रूप में हर्ष मायर का अभिनय अच्छा है। ‘आई एम कलाम’ में भी उन्होंने प्रभावित किया था और इस फिल्म में भी वह असर छोड़ते हैं। बाकी बच्चों का काम भी अच्छा है। कलाकारों का अच्छा अभिनय भी इस फिल्म की विशेषता है।

यह फिल्म गुदगुदाती है और भावुक भी करती है। मुकम्मल तौर पर देखें तो यह एक अच्छी फिल्म है, जो प्रेरित करती है और हमारी संवेदनाओं को जगाती है।

(23 मार्च 2018 को livehindustan.com और 24 मार्च 2018 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वीणा-वादिनी वर दे

सेठ गोविंद दास: हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के बड़े पैरोकार

राही मासूम रजा की कविता 'वसीयत'