फिल्म हेलीकॉप्टर इला की समीक्षा
उड़ नहीं पाता ये हेलीकॉप्टर
राजीव रंजन
कलाकार: काजोल, रिद्धि सेन, नेहा धूपिया, तोता राय चौधरी
निर्देशक: प्रदीप सरकार
संगीत: अमित त्रिवेदी
दो स्टार (दो स्टार)
अकेली मां के
अपने बच्चे की परवरिश के लिए अपने सपनों को कुर्बान कर देने की थीम पर कई फिल्में
बनी हैं। ‘हेलीकॉप्टर इला’ भी ऐसी ही एक फिल्म है। इसमें संदेह नहीं कि
ऐसी थीम में काफी संभावनाएं होती हैं, अगर उसे तार्किक और संजीदा तरीके से पेश किया जाए तो। लेकिन ऐसे विषय पर फिल्म
बनाते समय पटकथा पर पर्याप्त परिश्रम नहीं
किया गया हो तो ‘सावधानी हटी,
दुर्घटना घटी’ वाली स्थिति पैदा है जाती है। प्रदीप सरकार निर्देशित और
काजोल की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म भी निर्देशक और लेखक की इसी ‘कैजुअल’ मनोवृत्ति का शिकार हो गई लगती है।
इला रायतुरकर (काजोल) एक प्रतिभाशाली गायिका है, जो पार्श्वगायन में करियर बनाना चाहती है। हालांकि खर्च चलाने के लिए वह मॉडलिंग भी कर लेती है। इला गायन में कुछ हद तक मशहूर भी हो जाती है। उसे महेश भट्ट अपनी फिल्म में काम करने का मौका भी दे देते हैं, लेकिन फिल्म लटक जाती है। फिर भी इला हार नहीं मानती और कोशिश में लगी रहती है। इसी बीच वह अपने प्रेमी अरुण (तोता राय चौधरी) से शादी कर लेती है, जो इसी क्षेत्र से जुड़ा है। जिंदगी ठीकठाक चल रही होती है कि अचानक एक दिन अरुण अपनी पत्नी इला और बेटे विवान (रिद्धि सेन) को छोड़ कर जाने का फैसला कर लेता है। यह घटना इला के जीवन को एकदम से बदल कर रख देती है। अब उसके जीवन का इकलौता उद्देश्य बन जाता है अपने बेटे की परवरिश करना। उसकी परवरिश के लिए वह अपनी सारी आकांक्षाओं को तिलांजलि दे देती है और उसे लेकर जरूरत से ज्यादा प्रोटेक्टिव भी हो जाती है। इस चक्कर में वह विवान के कॉलेज में दाखिला लेने का फैसला ले लेती है, जो विवान को पसंद तो नहीं है, लेकिन वह तैयार हो जाता है।
विवान अपनी मां
को बहुत प्यार करता है, लेकिन वह चाहता
है कि इला उसकी जिंदगी में बहुत ज्यादा घुसपैठ न करे, उसे स्पेस दे। वह यह भी चाहता है कि इला अपनी जिंदगी को
सिर्फ उसी के ईद-गिर्द न खर्च करे, बल्कि अपने सपनों,
आकांक्षाओं को भी जिए। मां-बेटे की अलग सोच के
कारण दोनों में काफी तकरार भी होती है। कुछ भावुक क्षण भी आते हैं...
फिल्म के नाम में
हेलीकॉप्टर है, लेकिन कमजोर
पटकथा का इंजन इसे ढंग से उड़ने नहीं देता। पटकथा इतनी बिखरी-बिखरी है कि विषय में
तमाम संभावनाओं के बावजूद यह फिल्म ऊंचाई पर जाने से पहले ही जमीन पर आ जाती है।
अपनी पहली फिल्म ‘परिणीता’ से थोड़ा-बहुत प्रभावित करने वाले प्रदीप सरकार
उसके बाद बतौर निर्देशक किसी फिल्म से प्रभावित नहीं कर पाए।
‘हेलीकॉप्टर इला’ भी अपवाद नहीं साबित हुई। जब भी यह फिल्म थोड़ी उड़ान भरती है,
पायलट यानी निर्देशक की सोच इसे फिर से
उबड़-खाबड़ रास्तों पर उतार देती है। वह जो कहना चाहते हैं, ठीक से कह नहीं पाते। उनकी बात में कहीं सुसंगतता नजर नहीं
आती, जिससे फिल्म का संदेश
असरहीन रह जाता है। हालांकि कुछ हल्के-फुल्के दृश्य आनंद भी देते हैं।
फिल्म में
गीत-संगीत के लिए भी काफी संभावनाएं थीं, लेकिन वह भी बस ठीकठाक ही है। एक गाना ‘यादों की अलमारी’ अच्छा लगता है। इस फिल्म में अगर कोई चीज कुछ ठीक है, तो वह है अभिनय। विवान के रूप में रिद्धि सेन का अभिनय बहुत
अच्छा है। अपने किरदार के हर पहलू को उन्होंने प्रभावी ढंग से उभारा है। एक टीनएजर
बेटे की भावनाओं और ख्यालों की उन्होंने अच्छी अभिव्यक्ति दी है। एक पजेसिव मां के
रूप में काजोल का अभिनय ठीक है। हालांकि उनके अभिनय में कोई बहुत नयापन नहीं है,
जिसे अलग से रेखांकित किया जा सके। कई जगह वह
जरूरत से ज्यादा चुलबुली नजर आती हैं, जैसे अक्सर घरेलू उत्पादों के विज्ञापन में नजर आती हैं। लेकिन कई संजीदा
दृश्यों में वह प्रभावित भी करती हैं। तोता राय चौधरी के हिस्से ज्यादा सीन नहीं
आए हैं, लेकिन उनका अभिनय अच्छा
है। नेहा धूपिया भी अपने किरदार में ठीक हैं। बाकी कलाकार भी ठीकठाक हैं, लेकिन उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका अलग से उल्लेख किया जाए।
फिल्म में अमिताभ
बच्चन, महेश भट्ट, अनु मलिक, इला अरुण और शान जैसी फिल्मी हस्तियां भी अतिथि भूमिका में
हैं। लेकिन उनकी मौजूदगी भी फिल्म को दर्शनीय नहीं पाती। ‘शिप ऑफ थीसियस’ जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म के निर्देशक आनंद गांधी के गुजराती नाटक ‘बेटा कागदो’ पर आधारित यह फिल्म कहीं-कहीं तो ठीक लगती है, लेकिन मुकम्मल तौर पर असरहीन है।
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