फिल्म ‘लव सोनिया’ की समीक्षा

एक ज्वलंत मुद्दा उठाने की कोशिश

राजीव रंजन

कलाकार: मृणाल ठाकुरमनोज बाजपेयीराजकुमार रावफ्रीडा पिंटोरिचा चड्ढाआदिल हुसैन

निर्देशक: तबरेज नूरानी

स्टार: ढाई (2.5)

हर दिन हमारे देश में सैकड़ों लड़कियां गायब हो जाती हैं और उनका कभी पता नहीं चल पाता। यूं भी कह सकते हैं कि उन्हें ढूंढ़ने की शिद्दत से कोशिश भी नहीं की जाती। अंत में घर वाले भी हार-थक कर संतोष कर लेते हैं और प्रशासन भी निश्चिंत होकर बैठ जाता है। और उन गुम कर दी गई लड़कियों में से ज्यादातर किसी शहर के रेडलाइट एरिया की अंधेरी सीलन भरी कोठरियों में अपनी जिंदगी के बाकी दिन गुजार देने को मजबूर होती हैं। उनमें से कुछ को विदेश भी भेज दिया जाता हैजिसके बदले कोठे के मालिकों को मोटा माल मिलता है। कोई-कोई वहां से निकलने की कोशिश करती हैंतो उनके साथ ऐसा भयानक सलूक किया जाता है कि दूसरी लड़कियां उसे देख कर ही सिहर जाती हैं। वे वहां से बाहर निकलने की सोचने की जुर्रत भी नहीं कर पातीं। भारत में वेश्यावृत्ति के दलदल में फंसी करीब एक करोड़ महिलाओं में से करीब एक-चौथाई नाबालिग हैं। और यह हाल केवल भारत का नहीं हैयह अंधेरा पूरी दुनिया में पसरा हुआ है। खासकर विकासशील देशों में तो बहुत ज्यादा। फिल्म लव सोनिया’ भी इसी अंधेरे में फंसी दो बहनों की कहानी है। उन दो बहनों के बहाने यह फिल्म देह-व्यापार के धंधे में पसरे अंतहीन अंधेरे’ के कुछ पहलुओं पर रोशनी डालने की कोशिश करती हैं।
सोनिया (मृणाल ठाकुर) और प्रीति (रिया सिसोदिया) बहने हैं और गांव में अपनी मां (किरण खोजे) और बाप शिवा (आदिल हुसैन) के साथ रहती हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि शिवा अपनी एक बेटी प्रीति को बेच देता है। प्रीति मुम्बई के एक कोठे पर पहुंचा दी जाती है। सोनिया अपनी बहन को ढूंढ़ने की कोशिश में जुट जाती है। उसकी ये कोशिश उसे भी मुम्बई में वेश्यावृत्ति के दलदल में ला पटकती है। उसके कोठे का मालिक फैजल (मनोज बाजपेयी) है। उस कोठे पर दो थोड़ी बड़ी उम्र की लड़कियां माधुरी (रिचा चड्ढा) और रश्मि (फ्रीडा पिंटो) भी हैंजो फैजल की खास हैं। दोनों सोनिया को अपने धंधे में मन लगाने के लिए प्रेरित करती हैं। लेकिन सोनिया का सिर्फ एक मकसद हैप्रीति का पता लगाना। इसके लिए वह हर कीमत चुकाने को तैयार रहती है।
सोनिया द्वारा प्रीति को ढूंढ़ने के क्रम में यह फिल्म गल्र्स ट्रेफिकिंग (लड़कियों की तस्करी) के कई भयावह पक्षों को सामने लाती है। यह फिल्म बताती है कि किस तरह मासूम लड़कियों को बाहर के देशों में भी भेज दिया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि यह फिल्म एक बेहद ज्वलंत और संवेदनशील मुद्दे को लोगों को सामने रखने का काम करती है। इसके लिए निर्माता और निर्देशक बधाई के पात्र हैं। लेकिन सिनेमाई दृष्टि से देखें तो यह फिल्म वह असर नहीं पैदा कर पातीजो इसे करना चाहिए था। ऐसा लगता हैपटकथा पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई है। निर्देशक के रूप में तबरेज नूरानी बहुत साधारण नजर आते हैं। वे किरदारों को बहुत प्रभावकारी ढंग से नहीं गढ़ पाए हैं। फिल्म के संवाद भी असरदार नहीं हैं। हां सिनमेटोग्राफी ठीक है।
फिल्म की स्टारकास्ट शानदार है। मनोज बाजपेयीराजकुमार रावरिचा चड्ढाआदिल हुसैनफ्रीडा पिंटो जैसे अव्वल दर्जे के कलाकार हैंलेकिन जब पटकथा साथ ना दे तो अच्छे कलाकारों के लिए भी मुश्किल होती है। शानदार स्टारकास्ट का फायदा निर्देशक नहीं उठा पाए हैं। हांमुख्य भूमिका में मृणाल ठाकुर प्रभावित करती हैं। उनके किरदार के लिए काफी स्कोप भी थाजिसे भुनाने में वह सफल रही हैं।
अगर ऐसे संवेदशील विषय पर बनी फिल्म दर्शक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित नहीं करतीझकझोरती नहींतो यह लेखक और निर्देशक की असफलता है। दुर्भाग्य से लव सोनिया’ भी संवेदनाओं को झकझोरने में कामयाब नहीं है। इसका थोड़ा-बहुत जो भी असर हैवह बस देखते वक्त होता है। सिनेमाहॉल से बाहर निकलते ही चीजें वहीं पीछे छूट जाती हैं। फिर भी विषय की वजह से एक बार फिल्म को देख सकते हैं।
(15 सितम्बर 2018 को हिन्दुस्तान में सम्पादित अंश प्रकाशित)

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