फिल्म ‘शिकारा’ की समीक्षा

कश्मीरी पंडितों की त्रासदी की पृष्ठभूमि में एक प्रेम कहानी

राजीव रंजन

कलाकार: आदिल खान, सादिया, प्रियांशु चटर्जी

निर्देशक: विधु विनोद चोपड़ा

लेखक: राहुल पंडिता, अभिजात जोशी, विधु विनोद चोपड़ा

3 स्टार

आज से करीब 30 साल पहले, 19 जनवरी 1990 को हजारों कश्मीरी पंडितों को आतंक वाद का शिकार होकर अपना घर छोड़ना पड़ा था। हालांकि उन्हें उम्मीद थी कि वे जल्दी ही अपने घरों में दुबारा से उसी तरह रह पाएंगे, जैसे दशकों से रहते आए थे। उन्हें उम्मीद थी कि उनके लिए देश की संसद में शोर मचेगा, लेकिन उनके पक्ष में कहीं से कोई आवाज नहीं उठी। तब से लेकर 30 साल बीत गए, आज भी वे अपने घरों को लौट नहीं सके हैं। अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं। शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। उनमें कई कश्मीरी पंडित अपने घर में फिर से रहने की आस अपने सीने में दबाए दुनिया से विदा भी हो गए।
निर्माता-निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘शिकारा’ इसी कथ्य के आसपास रख कर बुनी गई फिल्म है। हालांकि उन्होंने घाटी में आतंक की खेती और उसके परिणामस्वरूप कश्मीरी पंडितों पर हुए वीभत्स अत्याचारों को फिल्म में बस संदर्भ के रूप में रखा है और इसे एक कश्मीरी पंडित जोड़े की प्रेम कहानी के रूप में ज्यादा प्रस्तुत किया है। कहानी शुरू होती है 1987 में, जब कश्मीर घाटी कश्मीरी पंडितों की भी उतनी ही थी, जितनी कश्मीरी मुसलमानों की। फिल्म खत्म होती है 2018 में, जब हजारों कश्मीरी पंडित उस समय भी शरणार्थी का जीवन जीने को अभिशप्त हैं।
कश्मीर में एक फिल्म की शूटिंग हो रही है। निर्देशक को एक्स्ट्रा कलाकारों के रूप में एक कश्मीरी जोड़ा चाहिए। उसके असिस्टेंट शिव प्रकाश धर (आदिल खान) और शांति सप्रू (सादिया) को चुनते हैं। शिव कविताएं लिखता है, शांति नर्स है। इस घटना के बाद दोनों में प्यार हो जाता है और वे शादी कर लेते हैं। वह अपनी पहली रात डल झील में एक शिकारा में बिताते हैं, इसी की स्मृति में शांति अपने नए घर का नाम ‘शिकारा’ रखती है। ‘शिकारा’ में वह शिव के लिए रोगन जोश बनाती है और शिव उसके लिए कविताएं लिखता है- ‘तेरे होने से घर भरा-भरा सा लगे।’ लेकिन उनका यह सुख ज्यादा दिन नहीं टिकता। एक-दो सालों में परिस्थितियां ऐसी बदलती हैं कि कश्मीरी पंडितों के घर जलने शुरू हो जाते हैं, उनकी हत्याएं होने लगती हैं और उन्हें कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ता है और जम्मू में एक शरणार्थी कैम्प में अपना जीवन गुजारना पड़ता है...
यह फिल्म मुख्य रूप से शिव और शांति की प्रेम कहानी है। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने घाटी में आतंकवाद और कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को सिर्फ संदर्भ के रूप में प्रयोग किया है। उसकी थोड़ी-सी झलक दिखलाई है। वह भी फिल्म के पूर्वाद्र्ध में ही। मध्यांतर के बाद फिल्म पूरी तरह शिव और शांति की प्रेम कहानी पर फोकस करती है। विधु अपनी बात प्रतीकों में ज्यादा कहते हैं। लेखक राहुल पंडिता, अभिजात जोशी और विधु घाटी में आतंकवाद के कारणों की ज्यादा चर्चा नहीं करते। ज्यादा सवाल नहीं उठाते, बस प्रेम पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसीलिए फिल्म में कश्मीरी पंडितों के घर जलने के जो दृश्य है, उसमें निर्देशक उपद्रवियों के चेहरे दिखाने की बजाय उनकी परछाइयों को दिखलाते हैं। वे बस यह समझाने की कोशिश करते हैं कि सरकारी दमन और अमेरिका कश्मीर में आतंकवाद के पीछे मुख्य वजह हैं। इसीलिए फिल्म का नायक अमेरिका के राष्ट्रपति को चिट्ठियां लिखता है, भारत के हुक्मरानों को नहीं। कश्मीर में हिंदुओं को जिहाद की वजह से जिन जानलेवा स्थितियों से गुजरना पड़ा, फिल्म में उसका पांच प्रतिशत भी जिक्र नहीं है।
लेकिन इस फिल्म की प्रेम कहानी सशक्त है। वह अंदर तक भिगोती है। प्रेम की शक्ति में भरोसा पैदा करती है। शिव और शांति का प्रेम जिंदगी के सबसे कठिन लम्हों में भी कम नहीं होता। वह प्रेम ही है, जो उनके जीवन को कड़वा होने से बचाता है और अपने पीड़कों के प्रति भी कड़वा होने से बचाता है। (हालांकि वास्तविकता यह है कि कश्मीरी हिंदुओं में अपने पड़ोसियों के व्यवहार को लेकर काफी रंज है और वे इस नाराजगी को छुपाने की कोशिश भी नहीं करते)। हालांकि इस मामले में लेखक और निर्देशक पूरी फिल्म में इस कटु सत्य से बच कर निकलने का रास्ता निकालते हैं।

रंगराजन रामभद्रन की सिनेमेटोग्राफी शानदार है। वह अपने कैमरे से कश्मीर की नैसर्गिक खूबसूरती, वहां के जनजीवन और फिल्म के मूड को बेहतरीन तरीके से पेश करते हैं। शिव और शांति की शादी में कश्मीरी वाद्य, कश्मीर का लोक संगीत और कश्मीर की संस्कृति को प्रामाणिक तरीके से पेश किया गया है। विधु की एडिटिंग भी अच्छी है। फिल्म का गीत-संगीत सामान्य है।
शिव के रूप में आदिल खान का अभिनय बहुत अच्छा है। पहली ही फिल्म में उन्होंने शानदार काम किया है। एक निर्वासित कश्मीरी पंडित की पीड़ा को उन्होंने प्रभावी तरीके से अपने अभिनय से उभारा है। शांति के रूप सादिया भी प्रभावित करती हैं। उनकी भी यह पहली फिल्म है और पहली फिल्म में ही वह प्रभावित करने में सफल रही हैं। शिव के ममेरे भाई नवीन के रूप में प्रियांशु चटर्जी की भूमिका छोटी है, लेकिन वह याद रह जाते हैं। लतीफ की भूमिका जिस कलाकार ने निभाई है, उसका अभिनय भी अच्छा है। बाकी छोटी-छोटी भूमिकाएं निभाने वाले कलाकारों ने भी अपना काम ठीक किया है।

अगर इस फिल्म को आप एक प्रेम कहानी के रूप में देखेंगे, तो आपको प्रभावित करेगी, भावुक करेगी, आपमें करुणा भरेगी। लेकिन आप इसे कश्मीरी पंडितों के निष्कासन, उनकी त्रासदी से जोड़ कर देखेंगे, तो आप शायद निराश हो सकते हैं, क्योंकि इसमें उनकी पीड़ा को उचित अभिव्यक्ति नहीं मिलती है। सिनेमाई मापदंडों के आधार पर यह एक श्रेष्ठ फिल्म है और असर छोड़ती है। लेकिन तथ्यों पर गौर करेंगे, तो आपको लगेगा कि यह फिल्म खास नैरेटिक का निर्माण करने के लिए बनाई गई है।

(7 फरवरी को livehindustan.com में 8 फरवरी, 2020 को ‘हिन्दुस्तान’ में संपादित अंश प्रकाशित)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वीणा-वादिनी वर दे

सेठ गोविंद दास: हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के बड़े पैरोकार

राही मासूम रजा की कविता 'वसीयत'