लिंगराज मंदिरः यहां शिव के हृदय में बसते हैं विष्णु

राजीव रंजन

भारत का पूर्वी राज्य ओडिशा अपने प्राचीन मंदिरों के लिए विख्यात है। यहां के कई मंदिर अपनी प्राचीनता, माहात्म्य और स्थापत्य कला के लिए जाने जाते हैं और देशी-विदेशी श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। भुवनेश्वर का प्राचीन लिंगराज मंदिर भी इन्हीं में से एक है। यह भुवनेश्वर ही नहीं, ओडिशा और भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में गिना जाता है। इसकी स्थापत्य कला तो शानदार है ही, इससे जुड़ी मान्यताएं भी अद्भुत हैं। लिंगराज का अर्थ होता है लिंगम के राजा’, जो यहां भगवान शिव को कहा गया है। पहले यहां भगवान शिव की पूजा कीर्तिवास के रूप में की जाती थी, फिर बाद में उन्हें हरिहर के नाम से पूजा जाने लगा। उन्हें त्रिभुवनेश्वर यानी पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल का ईश्वर भी कहा जाता है। मान्यता है कि भुवनेश्वर नगर का नाम उन्हीं के नाम पर पड़ा। भगवान शिव की पत्नी को यहां भुवनेश्वरी कहा जाता है।

भगवान शंकर को समर्पित यह मंदिर कलिंग वास्तुशैली का अनुपम उदाहरण है। इसे बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल कर बनाया गया है। मंदिर परिसर एक परकोटे यानी चारदीवारी के भीतर स्थित है, जिसमें कई अन्य छोटे-बड़े मंदिर भी मौजूद हैं। करीब ढाई लाख वर्ग फुट के विशाल क्षेत्र में फैले इस मंदिर का मुख्य द्धार पूर्व की तरफ है। यह पवित्र बिंदुसागर झील के तट पर स्थित है। इसकी दीवारें कलात्मक मूर्तियों से सुशोभित हैं और उन पर मनोहर नक्काशी की गई है। मंदिर की बाहरी संरचना की नक्काशी तो ऐसी है कि देख कर विश्वास ही नहीं होता कि वह मनुष्यों द्वारा की गई होगी। मंदिर की ऊंचाई 55 मीटर है। मुख्य मंदिर के विमान से गौरी, गणेश और कार्तिकेय के तीन छोटे मंदिर भी जुड़े हुए हैं। मंदिर के चार प्रमुख भाग हैं- गर्भ गृह, यज्ञ शैलम, भोग मंडप और नाट्यशाला। भगवान शिव की पूजा यहां हरिहर रूप में की जाती है। सबसे पहले बिन्दुसरोवर में स्नान किया जाता है, उसके बाद क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं। फिर गणेश पूजा के बाद गोपालनी देवी और शिव जी के वाहन नंदी की पूजा कर लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश करते हैं। यहां आठ फीट मोटा और लगभग एक फीट ऊंचा ग्रेनाइट का स्वयंभू लिंग स्थित है। मान्यता है कि भारत में जो द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं, उन सभी का अंश इस लिंग में है, इसीलिए इन्हें लिंगराज कहा जाता है।

इतिहासकारों के मुताबिक वर्तमान मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा जजाति केसरी ने 11वीं शताब्दी में कराया था। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1090 से 1104 ईसवी के बीच का है। कुछ इतिहासकारों एवं विद्दानों के मतानुसार, यह मंदिर सातवीं शताब्दी में आस्तित्व में आ गया था, क्योंकि 7वीं सदी के संस्कृत लेखों में इस मंदिर का उल्लेख किया गया है। जेम्स फर्ग्युसन, जो भारतीय स्थापथ्य कला के इतिहास के विद्वान माने जाते हैं, उनके अनुसार, इस मंदिर की शुरुआत ललाट इंदु केशरी ने 615 से 657 ईस्वी के बीच की थी। जगमोहन (प्रार्थना कक्ष), मुख्य मंदिर और मंदिर के टावर का निर्माण 11वीं शताब्दी में किया गया। 1099 और 1104 ई. के बीच नाट्यशाला का निर्माण करवाया गया था। भोग-मंडप का निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया। लिंगराज मंदिर का निर्माण पूरा होने के बाद यहां भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा भी स्थापित की गई थी। मान्यता है कि विष्णु और शिव दोनों इस मंदिर में बसते हैं। यहां शिवलिंग के बीच में चांदी के शालिग्राम भगवान स्थित हैं, मानो भगवान शिव के हृदय में भगवान विष्णु विराजमान हैं। इसीलिए यहां भगवान की पूजा हरिहर रूप मे होती है। मंदिर प्रातः 6.30 बजे खुलता है। यहां सोमवार और शनिवार को और दिनों की अपेक्षा ज्यादा श्रद्धालु आते हैं। लिंगराज मंदिर में गैर-हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन बाहर बने एक चबुतरे से वह मंदिर को देख सकते हैं।

प्रमुख त्योहारः मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य त्योहार शिवरात्रि है। शिवरात्रि का मुख्य पर्व रात में मनाया जाता है और सारे श्रद्धालु रात भर भगवान का पाठ करते हैं। श्रावण मास में सुबह-सुबह हजारों लोग महानदी से पानी भरकर पैदल मंदिर आते हैं और जल चढ़ाते हैं। इसके साथ ही यहां भाद्रपद महीने में सुनियन दिवस मनाया जाता है। इस दिन मंदिर के नौकर, किसान और दूसरे लोग लिंगराजा को निष्ठा और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इसके अलावा, मंदिर में 22 दिनों तक चलने वाला चंदन यात्रा त्योहार भी धूमधाम से मनाया जाता है।

महाप्रसादः यहां का महाप्रसादम् भी भक्तों के बीच बहुत प्रसिद्ध है। उसे मिट्टी के बर्तनों में पुजारियों द्वारा तैयार किया जाता है। पहले इसका भोग भगवान को लगाया जाता है, फिर भक्तों को बांटा जाता है। इसके लिए श्रद्धालुओं से शुल्क लिया जाता है, जिसे वे खुशी खुशी देते भी हैं। प्रसाद लेकर घर भी जा सकते हैं। यह परंपरा कब से चली आ रही है, पता नहीं। यहां रोज सैकड़ों मन प्रसाद बनता है।

पवित्र बिंदुसागर सरोवरः इसके निर्माण के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। भगवान शिव बनारस से यहां आकर अदृश्य अवस्था में तप में लीन हो गए। उनकी खोज में मां पार्वती भी यहां चली आईं। लेकिन अदृश्य होने के कारण शिवजी उन्हें दिखाई नहीं पड़े। एक दिन मां पार्वती ने एक आम के पेड़ के नीचे सैकड़ों गायों को अपने आप दूध देते देखा। वह समझ गईं कि उनके पति भगवान शिव वहीं हैं। मां पार्वती वहां गाय चराने वाली यानी गोपालिनी के रूप में रहने लगीं। लिट्टी और वसा नाम के दो राक्षस उनके रूप पर मोहित हो गए। उन दोनों ने माता पार्वती से विवाह का प्रस्ताव रखा। इससे क्रोधित होकर मां पार्वती ने अपने पैर के नीचे दबाकर उनका वध कर दिया। उस स्थान को पगधरा कहा जाता है। दोनों राक्षसों का वध करने के बाद थक कर वो विश्राम करने लगीं। उस स्थान पर भवानीशंकर मंदिर है। फिर उन्हें प्यास लग आई। शिवजी ने उनकी प्यास बुझाने के लिए अपने त्रिशूल से एक कुंड का निर्माण किया और सभी नदियों को अपना जल उसमें प्रवाहित करने का अनुरोध किया। उसी से बिंदुसागर सरोवर बना। इस सरोवर में स्नान करने से मनुष्य के पापों का नाश हो जाता है।

कैसे पहुंचें- लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर में मुख्य शहर के बीच स्थित है। भुवनेश्वर देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल, सड़क और वायु मार्ग से जुड़ा हुआ है। आप अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी माध्यम से वहां पहुंच सकते हैं।

(हिन्दुस्तान में 5 जनवरी, 2021 को संपादित अंश प्रकाशित)

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