विश्वास की जीत की कहानी




राजीव रंजन

‘कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता/ एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।’ अगर बहुत संक्षेप में ‘ट्यूबलाइट’ के बारे में बताना हो तो हिंदी गजल के सम्राट दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं। इस फिल्म का मूल संदेश है- यकीन से पत्थर को भी हिलाया जा सकता है। इसी भाव के ईर्द-गिर्द पूरी फिल्म का ताना-बाना बुना गया है। यह युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी अमेरिकी फिल्म ‘लिटिल बॉय’ से प्रेरित है। बस अंतर ये है कि जहां ‘लिटिल बॉय’ पिता-पुत्र के प्यार की कहानी है, वहीं ‘ट्यूबलाइट’ में निर्देशक कबीर खान ने दो भाइयों के प्यार की कहानी को आधार बनाया है।

कुमायूं क्षेत्र (वर्तमान में उत्तराखंड) के जगतपुर गांव में दो भाई हैं लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) और भरत सिंह बिष्ट (सोहेल खान)। उनके माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। रामायण के विपरीत यहां लक्ष्मण बड़ा है और भरत छोटा। लक्ष्मण को सब ट्यूबलाइट कहते हैं, क्योंकि उसे कोई भी बात जल्दी समझ में नहीं आती। वह थोड़ा मंदबुद्धि है।

लक्ष्मण उम्र में तो बड़ा है, लेकिन बड़े भाई का कर्तव्य छोटा भाई भरत उठाता है। जब दोनों बच्चे थे, तब एक दिन उनके गांव में गांधीजी आए थे, जिन्होंने कहा था कि यकीन से कुछ भी हो सकता है। लक्ष्मण पूछता है कि यकीन कहां मिलता है तो गांधी कहते हैं कि यकीन आदमी के दिल में होता है। ये बात भोले-भाले लक्ष्मण के दिल में बैठ जाती है। जब वह बड़ा होता है तो एक दिन गांव में एक जादूगर (शाहरुख खान) आता है, जो दिखाता है कि यकीन से पत्थर को हिलाया जा सकता है।

इसी बीच सन 1962 आता है। भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव चरम पर है। युद्ध की आशंका सामने है। कुमायूं रेजिमेंट के मेजर राजबीर टोकस (यशपाल शर्मा) जगतपुर के नौजवानों से सेना में भर्ती होने की अपील करते हैं। लक्ष्मण, भरत और उनका साथी नारायण (जीशान अय्यूब) भी सेना में भर्ती होने के लिए जाते हैं, लेकिन उनमें से चुनाव सिर्फ भरत का होता है।

जगतपुर के गांधीवादी बन्ने चाचा (ओमपुरी) का मानना है कि युद्ध नहीं होगा, क्योंकि देश के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू युद्ध नहीं चाहते। भरत सीमा पर चला जाता है। चीन भारत पर हमला कर देता है। लक्ष्मण को विश्वास है कि उसका छोटा भाई भरत जल्दी ही लौट कर आएगा, लेकिन युद्ध समाप्त होने पर भी वह नहीं आता। फिर भी लक्ष्मण अपना यकीन कमजोर नहीं होने देता है। इस बीच चीनी मूल की भारतीय लिलिंग (जू जू) अपने बेटे गुओ (माटिन रे तांगू) के साथ रहने के लिए जगतपुर आती है। उसके पिता जोधपुर की जेल में बंद हैं। जगतपुर के लोग, खासकर नारायण उन लोगों पर शक करता है और चीनी समझ कर नफरत करता है। लेकिन बाद में लक्ष्मण की गुओ और लिलिंग से दोस्ती हो जाती है।

ट्यूबलाइट’ दो भाइयों के आपसी प्यार और मनुष्य के विश्वास का गुणगान तो करती ही है, युद्ध की पृष्ठभूमि में अमन की बात भी करती है। यह फिल्म युद्ध के मनुष्य पर होने वाले प्रभावों के बारे में बात करती है। हालांकि युद्ध की विभीषिका का बताने के लिए संवादों का सहारा नहीं लिया गया है, बल्कि उसे परिस्थितियों और भावों के जरिये दिखाने की कोशिश की गई है। साथ ही यह भी बताने की कोशिश की गई है कि चेहरे का आकार-प्रकार और रूप-रंग से देश के प्रति उसकी निष्ठा और प्रेम का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए।

फिल्म के निर्देशक और लेखक कबीर खान की यह ‘एक था टाइगर’ और ‘बजरंगी भाईजान’ के बाद सलमान खान के साथ तीसरी फिल्म है। जब दोनों साथ आते हैं तो दोनों बेहतर नजर आते हैं। कबीर एक निर्देशक के रूप में और सलमान एक अभिनेता के रूप में। ‘ट्यूबलाइट’ इस सिलसिले को आगे बढ़ाती है। बॉक्स ऑफिस पर कारोबार की दृष्टि से भी दोनों का गठजोड़ काफी सफल रहा है। सवा दो घंटे की यह फिल्म गति में धीमी है। कई बार तो नीरस-सी होने लगती है, लेकिन तुरंत संभल जाती है। इसकी सबसे बड़ी ताकत इसका भावनात्मक होना है। कई दृश्यों में यह सहज तरीके से हंसाती भी है। अगर एक्शन की बात करें तो इसमें बिल्कुल नहीं है। युद्ध के दो-चार छोटे-छोटे दृश्यों को छोड़ कर। इस मामले में यह सूरज बड़जात्या के फिल्मों की तरह है।

फिल्म की सिनमेटोग्राफी बहुत सुंदर है। असीम मिश्रा ने प्राकृतिक दृश्यों को बहुत खूबसूरती से उनके वास्तविक स्वरूप में अपने कैमरे में कैद किया है। फिल्म का संगीत भी ठीक है। प्रीतम की धुनें सुनने लायक हैं। खासकर ‘सजन रेडियो’ बहुत मधुर और मस्ती भरा है। इसका पिक्चराइजेशन भी बहुत सुंदर है। वैसे प्रीतम के संगीत से ज्यादा असरदार जूलियस पकियम का बैकग्राउंड म्यूजिक है।

भाइयों के रूप में सोहेल खान और सलमान खान की केमिस्ट्री शानदार है। दोनों का एक-दूसरे के प्रति प्यार यह एहसास कराता है कि दोनों वास्तव में भी भाई हैं। सोहेल का अभिनय ठीक रहा है। ओमपुरी तो साधारण से साधारण किरदार को भी असाधारण बना देते हैं। जीशान अय्यूब के बारे में भी यह बात कही जा सकती है। बन्ने चाचा की सहयोगी माया के रूप में ईशा तलवार अच्छी लगी हैं। उनका अपीयरेंस निमरत कौर से काफी मिलता है। बृजेंद्र काला अपने अभिनय के अलग अंदाज से छोटी-छोटी भूमिकाओं को भी असरदार बना देते हैं।

लिलिंग के रूप में चीनी अभिनेत्री जू जू प्रभावित करती हैं। उनके एक्सप्रेशन अच्छे लगे हैं। गुओ के रूप में माटिन की मासूमियत प्रभावित करती है। फिल्म के सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है, लेकिन ये फिल्म पूरी तरह से सलमान खान की है। उन्होंने एक मंदबुद्धि नौजवान के रूप में बेहतरीन अभिनय किया है। वह अपने अभिनय से बार-बार भावुक करते हैं। यह उनका अब तक का सबसे अच्छा अभिनय है। वह यह यकीन दिलाने में कामयाब रहते हैं कि अगर वह अच्छा अभिनय करना चाहें तो निस्संदेह कर सकते हैं।

फिल्म के समग्र प्रभाव की बात करें तो यह प्रभावित करती है। फिल्म के जरिये निर्देशक जो कहना चाहते हैं, वह कहने में काफी हद तक सफल रहे हैं। यह फिल्म देखने लायक है। खासकर जो लोग भावनात्मक कहानियां पसंद करते हैं, उनके लिए इसमें बहुत कुछ है।

ढाई स्टार
निर्देशक: कबीर खान
कलाकार: सलमान खान, सोहेल खान, जू जू, ओमपुरी, जीशान अय्यूब, माटिन रे तांगू, ईशा तलवार, बृजेंद्र काला, यशपाल शर्मा
संगीत: प्रीतम चक्रवर्ती

साभार: हिंदुस्तान

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