ये प्रकृति पुत्र हैं आधुनिक तपस्वी

राजीव रंजन

एक तरफ हम जल संरक्षण के पारम्परिक तरीके भूलते जा रहे हैं तो दूसरी प्रकृति को नष्ट करके अपने ही हाथों अपने विनाश का रास्ता तैयार कर रहे हैं। प्रकृति को लेकर ज्यादातर लोग चिंतित हैं, लेकिन यह चिंता सिर्फ शब्दों तक सीमित है। लेकिन इसी देश में कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने परिणाम की परवाह न करते हुए अकेले संघर्ष जारी रखा और अपने अनवरत प्रयास से समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है।

कहावत है- ‘अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता’, लेकिन बिहार के गया जिले के दशरथ मांझी ने अकेले पहाड़ काट कर इस इस कहावत को गलत साबित कर दिया था। उन्होंने 22 वर्ष तक बिना थके सिर्फ छेनी और हथौड़ी से पहाड़ काट कर रास्ता बना दिया। मांझी अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गए थे। झारखंड के सिमोन उरांव, छत्तीसगढ़ के श्याम लाल और असम के जादव पायेंग कहानी भी दशरथ मांझी जितनी ही प्रेरक और हैरान कर देने वाली है। सिमोन उरांव ने जहां सूखे जूझते झारखंड के कई गांवों को इस समस्या से मुक्ति दिलाई तो जादव ने अकेले ही सैकड़ों एकड़ का जंगल तैयार कर दिया। वहीं श्याम ने अकेले 27 साल दिन-रात एक करके तालाब खोद दिया।

झारखंड के वाटरमैन सिमोन उरांव

84 वर्षीय सिमोन उरांव को झारखंड का वाटरमैन कहा जाता है। पर्यावरण संरक्षण में उनके अतुल्य योगदान के लिए उन्हें 2016 में ‘पद्मश्री’ से भी नवाजा गया। रांची जिले के बेड़ो प्रखंड के एक गांव में जन्मे उरांव किसानों में बहुत लोकप्रिय हैं। अपने इलाके में वे बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि आज बेड़ो प्रखंड झारखंड में ‘एग्रीकल्चर हब’ बन गया है। यहां का भूजल स्तर बहुत बढ़ गया है। बंजर जमीन पर अब अच्छे तरीके से खेती हो रही है। यहां के किसान अब साल में एक से अधिक फसलें उगाते हैं, जबकि पहले एक फसल भी मुश्किल से हो पाती है। आज बेड़ो प्रखंड झारखंड के विभिन्न जिलों और बिहार, ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल जैसे पड़ोसी राज्यों को करीब 25 टन सब्जी की आपूर्ति करता है।



लेकिन यह सब कुछ इतना आसान नहीं था। सिमोन आज 84 साल के हैं और उन्होंने अपने इस सफर की शुरुआत 28 साल की उम्र से करीब छह दशक पहले शुरू की थी। उस समय उनका इलाका सूखे से पीड़ित था। कई लोग भूख से मर गए। ढेर सारे लोग इलाका अपना घर छोड़ कर दूसरी जगहों पर जाने के लिए मजबूर हो गए, ताकि जिंदा रह सकें। यह सब देखना सिमोन के लिए बहुत पीड़ादायी था। फिर उन्होंने तय किया कि अपना जीवन वे इस त्रासदी को दूर करने के लिए समर्पित करेंगे। वे जल और पर्याववरण संरक्षण के यज्ञ में जुट गए।

1961 में सिमोन ने अपने जैसी सोच वाले कुछ नौजवानों के साथ वर्षा जल को रोकने के लिए चेक डैम बनाने का काम शुरू किया। शुरू में सफलता नहीं मिली। सीमित संसाधनों से बनाए गए मिट्टी के ये बांध पहली ही बरसात में ध्वस्त हो गए। लेकिन उरांव ने हार नहीं मानी। फिर उन्होंने सरकारी एजेंसियों से सहायता हासिल करने की कोशिश की। वे तब तक उनके पीछे लगे रहे, जब तक कि सरकारी संस्थाओं ने उन्हें कंक्रीट चेक डेम बनाने में मदद नहीं प्रदान कर दी। उनके इस प्रयास ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। सिमोन ने वृक्षारोपण अभियान शुरू किया और तालाबों की खुदाई भी, ताकि वर्शा का पानी बेकार नहीं जाए। आने वाले सालों में उन्होंने 50 से ज्यादा गांवों के लोगों का पर्यावरण संरक्षण के प्रेरित और प्रशिक्षित किया।

सिमोन भले ही 80 साल की उम्र के बाद भी उन्होंने हर साल पौधे लगाने का सिलसिला तोड़ा नहीं है। और उनकी अनुमति के बगैर उनके गांव में एक भी पेड़ नहीं काटा जाता है।

भारत के फॉरेस्टममैन जादव पायेंग

असम के जादव पायेंग को भारत का ‘फॉरेस्ट मैन’ कहा जाता है। उन्होंने अपने बुते 1360 एकड़ का जंगल तैयार कर दिया है। उन्होंने यह काम करीब 38 साल पहले 1979 में शुरू किया था। इस पराक्रम की कहानी भी दिलचस्प है। मिशिंग जनजाति से ताल्लुक रखने वाले पायेंग 1978 में जोरहाट जिले के बलिगांव के एक सरकारी हाई स्कूल से 10वीं की पढ़ाई करके वापस लौटे थे। वह रोजगार की तलाश में पटना, कोलकाता और नेपाल में भी रहे, लेकिन फिर ब्रह्मपुत्र नदी के माजुली द्वीप स्थित अपने गांव अरुणासोपोरी लौट आए। यहां का दृश्य देख कर वह विचलित हो गए। बाढ़ की वजह से सैकड़ों सांप उसकी चपेट में आ गए और जब बाढ़ का पानी उतरा तो वे कीचड़ में सने बेजान से पड़े रहे और फिर मर गए। यह देख पायेंग का दिल टूट गया। ग्रामीणों ने उन्हें पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया, ताकि सांपों को बचाया जा सके। ग्रामीणों ने वृक्षारोपण के अपने पारम्परिक जानकारी देते हुए पायेंग को बीज और बांस के पौधे दिए।



इसी पारम्परिक ज्ञान और अपनी लगन से दिन-रात एक करके पायेंगे पूरा जंगल ही उगा डाला। उनके इस काम के बारे में लोगों को जानकारी तब मिली, जब एक जोरहाट के ही एक वाइल्डलाइफ पत्रकार ने करीब आठ-नौ साल पहले पायेंग और उनके जंगल के बारे में लिखा। उनके इस काम के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें सम्मानित भी किया था। स्थानीय लोग उन्हें ‘मोलाई’ और उनके लगाए गए वन को ‘मोलाई जंगल’ कहते हैं। मोलाई का अर्थ जंगल होता है। आज पेयांग के जंगल में पौधों, घास और फर्न की करीब 100 प्रजातियां। इनमें कुछ औषधीय पौधे भी हैं। इसके अलावा पायेंग का जंगल पांच रॉयल बंगाल टाइगर, 100 से ज्यादा हरिणों, जंगली सुअरों, एक सींग वाले चार गेंडों, सौ से ज्यादा गिद्धों, पक्षियों की कई प्रजातियों का घर है।

जादव पायेंग पर कनाडा के फिल्मकार विल मैकमास्टर ने ‘फॉरेस्ट मैन’ नाम से फिल्म बनाई है। जब उन्होंने पहली जाएंग का जंगल तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई आदमी ऐसा कर सकता है। उन्हें लगा, ये कोई चालबाजी है। लेकिन पायेंग जब उन्हें अपने जंगल के अंदर ले गए तो विल ने देखा कई बड़े पेड़ एक कतार में एक निश्चित दूरी पर लगाए गए हैं। ऐसा कोई आदमी ही कर सकता है। विल का कहना था, ‘जब मुझे इस बात का एहसास हुआ, मैं जंगल आश्चर्यचकित होकर देखता रह गया।’

पाएंग का मानना है कि अगर हर स्कूली बच्चे को दो पेडों को बड़ा करने की जिम्मेदारी दी जा तो भारत पूरी तरह हरा-भरा हो जाएगा। पायेंग की तमन्ना और 5000 एकड़ में जंगल लगाने की है।

छत्तीसगढ़ के जुनूनी श्याम लाल



छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के साजा पहाड़ गांव के श्याम लाल की दास्तान भी किसी मायने में कम प्रेरक नहीं है। उनका गांव सालों से पाली की किल्लत झेल रहा था। ग्रामीणों को समझ में नहीं आ रहा था क्या करें। सरकार ने भी उनके लिए कुछ नहीं किया। लेकिन 15-16 साल के श्याम लाल ने किसी का आसरा ताकने की बजाय खुद ही कुछ करने का फैसला कर लिया। उन्होंने अपनी कुदाल उठाई, जंगल में एक जगह को चुना और 27 साल तक वहां खुदाई करते रहे। गांव वाले उनका उपहास उड़ाते थे, लेकिन श्याम लाल डिगे नहीं। और इसका नतीजा रहा- एक एकड़ का 15 फीट गहरा तालाब, जो आज गांव के लोगों के लिए अमृत कुंड की तरह है। आज इस तालाब का पानी गांव के बहुत काम आ रहा है।

बिहार के तालाबी बाबा

कुछ ऐसा काम किया है बिहार के पटना जिले के बाढ़ प्रखंड में स्थित मानिकपुर गांव के किसान कमलेश्वरी सिंह ने। लोग उन्हें ‘तालाबी बाबा’ के नाम से चिढ़ाते थे। उन्होंने करीब 11 साल पहले अकेले 60 फीट लंबा, 60 फीट चौड़ा और 25 फीट गहरा तालाब खोद डाला था। इसके लिए उन्होंने सात साल की कड़ी मेहनत की और इसके लिए सिर्फ खुरपी की मदद ली, क्योंकि वह कुदाल नहीं चला सकते थे।

ये प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता के प्रति मनुष्य का अनन्य प्रेम है, जो उससे असंभव-सी लगने वाली चीजों को भी संभव करा लेता है। हमारे देश और समाज में ऐसी ढेरों गाथाएं बिखरी पड़ी हैं, बस जरूरत है तो उनसे प्रेरणा लेने की।


(हिन्दुस्तान के ‘फुरसत’ सप्लीमेंट में 31 दिसंबर 2017 को प्रकाशित)


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