नॉकआउट करने में नाकाम है ‘मुक्काबाज’

राजीव रंजन



फिल्म समीक्षा- मुक्केबाज
कलाकार: विनीत कुमार सिंह, जोया हुसैन, जिमी शेरगिल, रवि किशन, साधाना सिह
निर्देशक: अनुराग कश्यप
ढाई स्टार (2.5 स्टार)


अनुराग कश्यप एक अंतराल के बाद बतौर निर्देशक ‘मुक्काबाज’ के साथ लौटे हैं। उनकी फिल्मों से सलमान खान और आमिर खान की फिल्मों की तरह ‘दो सौ करोड़ी’ और ‘तीन सौ करोड़ी’ क्लब में शामिल होने की उम्मीद तो नहीं रहती, लेकिन इतनी उम्मीद जरूर रहती है कि वे लीक पर नहीं चलेंगी। बतौर निर्देशक अनुराग ने बने-बनाए प्रतिमानों को ध्वस्त किया है। वह अपनी तरह के एक अलग फिल्मकार हैं, जिन्होंने कई युवाओं को अलग तरह फिल्में बनाने की प्रेरणा दी है और कुछ को मौका भी दिया है। जाहिर है, अनुराग की छवि और साख के मद्देनजर ‘मुक्काबाज’ को लेकर भी कुछ ऐसी ही उत्सुकता मन में जगती है। क्या यह फिल्म उन मानकों पर खरी उतरती है, जिसके लिए अनुराग जाने जाते हैं? इसका जवाब नकारात्मक है। पहले बात कहानी की।

बरेली का रहने वाला श्रवण कुमार सिंह (विनीत कुमार सिंह) मुक्केबाज बनना चाहता है। इसके लिए वह बरेली के दबंग मुक्केबाजी कोच भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) से प्रशिक्षण लेता है। मिश्रा जी मुक्केबाजी की कोचिंग देने की बजाय अपने चेलों से अपने घर का काम कराते हैं, अपनी सेवा कराते हैं। इसी क्रम में मिश्रा जी के घर का गेहूं पिसवाने के दौरान श्रवण की नजर उनकी गूंगी भतीजी सुनयना (जोया हुसैन) पर पड़ती है और वह उसे देखते रह जाता है। जोया को देखते वक्त वह मिश्रा जी की मालिश करने में गलती कर बैठता है। इससे मिश्रा जी नाराज हो जाते हैं, तो श्रवण उनसे बहस कर बैठता है। बात इतनी बढ़ जाती है कि वह एक जोरदार पंच से मिश्रा जी को जमीन सुंघा देता है। फिर मिश्रा जी के दूसरे चेले उसकी जम कर पिटाई करते हैं। सुनयना इस दृश्य को देखती है और उसे भी श्रवण से प्यार हो जाता है। उधर मिश्रा जी श्रवण को धमकी देते हैं कि वह मुक्केबाजी में उसका करियर बनने नहीं देंगे। वह अपने रसूख के बल पर उसे किसी भी टूर्नामेंट हिस्सा नहीं लेने देते। एक अधिकारी उसे बनारस जाने की सलाह देता है। वहां एक दलित कोच संजय कुमार (रवि किशन) की नजर श्रवण पर पड़ती है और वह उसे संवारने में जुट जाते हैं। लेकिन भगवान दास को यह बर्दाश्त नहीं होता। वह हर तरह के तौर-तरीके आजमा कर श्रवण और संजय कुमार को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं। उनके हर पैंतरे के सामने श्रवण और संजय डट कर खड़े रहते हैं।

मुक्केबाजी की बदौलत श्रवण को स्पोट्र्स कोटा से नौकरी मिल जाती है और वह सुनयना से शादी करने में सफल हो जाता है। मिश्रा जी को भला यह कैसे बर्दाश्त होता। अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए वह अपने सगे भाई, भाभी और भतीजी को भी नहीं बख्शते। श्रवण के सामने कई चुनौतियां हैं। उसे अपना प्यार बचाना है, परिवार बचाना है, मुक्केबाजी बचानी है। उसके पास समय नहीं है, लेकिन वह सबका सामना करता है...

भोजपुरी में एक कहावत है, ‘ढेर जोगी मठ उजाड़’ यानी जिस मठ में ज्यादा जोगी इकट्ठे हो जाते हैं, उसका बर्बाद होना निश्चित है। दरअसल इस फिल्म के साथ भी यही समस्या है। ऐसा लगता है, निर्देशक अनुराग कश्यप और लेखक विनीत कुमार सिंह देश की सारी समस्याएं एक ही फिल्म में दिखा देना चाहते हैं। इसमें एक मुक्केबाज का संघर्ष और उसकी प्रेम कहानी भी है। अपनी निजी जिंदगी और पेश्ोवर जिंदगी में वह किन-किन स्तरों पर जूझ रहा होता है, उसका चित्रण भी है। देश में कोच और खेल प्रशासक मिल कर किस तरह खेल को बर्बाद कर रहे हैं, इसकी भी बात है। दफ्तरों में अधिकारी वर्ग अपने मातहतों से किस तरह का व्यवहार करता है, उनसे अपने निजी काम करवाता है, यह भी दिखाया गया है। यहां तक तो गनीमत थी। लेकिन वह इसमें गोरक्षा के नाम पर होने वाली गुंडागर्दी को भी घुसेड़ देते हैं। ‘भारतमाता की जय’ नारे के बहाने होने वाले कुकृत्यों की छौंक लगाना भी नहीं भूलते। और जातिवाद तो एक आवश्यक घटक है ही इस फिल्म का। इसका नतीजा यह हुआ कि पहले हाफ में फिल्म ने जो असर पैदा किया था, वह दूसरे हाफ में विलुप्त हो जाता है। बॉक्सिंग कोच मिश्रा जी को सर्वशक्तिमान दिखाया गया है, जो कुछ अवास्तविक लगता है। फिल्म का क्लाइमैक्स भी बहुत साधारण है।

पता नहीं इतने सारे रूपक रचने के पीछे अनुराग की क्या मजबूरी थी, लेकिन यह फिल्म के लिए तो कतई ठीक नहंी रहा। हां कुछ चीजें इस फिल्म में जरूर अच्छी हैं। अनुराग ने कोच और खेल प्रशासकों के रवैये को बहुत अच्छी तरह से दिखाया है। सरकारी दफ्तरों के महौल को भी उन्होंने अच्छे से पेश किया है। सबसे बड़ी खासियत यह है कि मुक्केबाजी के जितने भी दृश्य हैं, वे बहुत प्रामाणिक लगते हैं। पटकथा भले कमजोर है, लेकिन फिल्म के संवाद जोरदार हैं। हालांकि मुख्य किरदारों के बोलने का जो लहजा है, वह बरेली का कम, पूर्वांचल (बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी इलाके) का ज्यादा लगता है।

इस फिल्म का सबसे शानदार पक्ष है कलाकारों का अभिनय। मुख्य किरदार श्रवण की भूमिका को विनीत कुमार सिंह ने अद्भुत तरीके से जिया है। ‘मुक्काबाज’ बनने के लिए जो बेहद कड़ा प्रशिक्षण उन्होंने लिया था, वह इस फिल्म में स्पष्ट नजर आता है। उनकी बॉडी, बॉडी लैंग्वेज, रिंग में फाइट सब कुछ बहुत वास्तविक लगता है। उनके चेहरे पर हर तरह के भाव इस सहजता से आते हैं कि अभिनय नहीं, यथार्थ की अनुभूति देते हैं। खासकर एक युवा के आक्रोश को तो उन्होंने जबर्दस्त तरीके से पेश किया है। ऐसा अभिनय कम देखने को मिलता है। जोया हुसैन ने भी अपने किरदार के हर पहलु को अच्छे से निभाया है। उनकी यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका अभिनय देख कर ऐसा लगता नहीं। जिमी शेरगिल बढ़िया अभिनेता हैं और इस फिल्म में खलनायक के रूप में वह अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं। रवि किशन का किरदार छोटा है, लेकिन वह कोच संजय कुमार की भूमिका में बहुत स्वाभाविक लगे हैं। सुनयना की मां के रूप में ‘नदिया के पार’ वाली साधना सिंह ने भी अच्छा अभिनय किया है। बाकी कलाकारों ने भी अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।

सिनमेटोग्राफी अच्छी है और गीत-संगीत भी फिल्म के मिजाज के मुताबिक ठीक है। अफसोस इस बात का है कि विनीत के शानदार अभिनय पर विनीत की कहानी और अनुराग कश्यप के प्रस्तुतीकरण ने पानी फेर दिया है। यथार्थ को प्रामाणिक तरीके से पेश करने की बात तो छोड़िए, अनुराग ‘मुक्काबाज’ को एक मनोरंजक मसाला फिल्म भी नहीं बना पाए हैं। जब आप थियेटर से फिल्म देख कर बाहर निकलेंगे तो शायद आपके मन में भी यह सवाल आ सकता है- अनुराग कश्यप कहीं रामगोपाल वर्मा बनने की राह पर तो नहीं हैं!

(livehindustan.com में 12 जनवरी और हिन्दुस्तान में 13 जनवरी 2018 को प्रकाशित)

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