इस ‘वोदका’ में मजा नहीं

राजीव रंजन


फिल्म समीक्षा- वोदका डायरीज
कलाकार: केके मेनन, मंदिरा बेदी, शारिब हाशमी, राइमा सेन
निर्देशक: कुशल श्रीवास्तव
दो स्टार (2 स्टार)



क्रिकेट में एक बात कमेंटेटरों से अक्सर सुनने को मिलती है- अच्छी शुरुआत का फायदा टीम नहीं उठा पाई और मैच हाथ से निकल गया। ‘वोदका डायरीज’ के बारे में भी ये बात कही जा सकती है। इस ‘वोदका’ को ठीक से बनाया नहीं गया है, इसलिए इसका मजा बिगड़ गया।

एसीपी अश्विनी दीक्षित (केके मेनन) अपनी पत्नी शिखा (मंदिरा बेदी) के साथ छुट्टियां बिता कर वापस मनाली लौटता है। घर पहुंचते ही उसे एक हत्या की तफ्तीश का जिम्मा मिल जाता है। वह इस केस को हल करने में जुट जाता है, जिसमें उसकी मदद उसका जूनियर ऑफिसर अंकित (शारिब हाशमी) कर रहा है। इसी केस की जांच के दौरान एक रात में कई हत्याएं हो जाती हैं और सारी हत्याओं का सम्बंध मनाली के एक होटल व क्लब वोदका डायरीज से है। अश्विनी इस जांच में बुरी तरह उलझता जाता है। इसी बीच उसकी पत्नी गायब हो जाती है। वह विक्षिप्त-सा हो जाता है। जांच के दौरान रोशनी बनर्जी (राइमा सेन) नाम की एक रहस्यमय महिला उससे टकराती रहती है। वह उसे बताती है कि सारी हत्याओं में एक कॉमन बात है। अगर अश्विनी उसका पता लगा लेगा तो उस तक पहुंच जाएगा और सारी गुत्थी सुलझ जाएगी। उस क्लू के सहारे अश्विनी एक दिन अपने ही घर पहुंच जाता है। ...

फिल्म का पहला हाफ अच्छा है, लेकिन दूसरा हाफ बिखरा-बिखरा सा लगता है। घटनाएं इतनी उलझ जाती हैं कि कई बार उकताहट होने लगती है। मन करता है कि रहस्य का पता जल्दी से लगे और फिल्म बस किसी तरह खत्म हो। किसी सस्पेंस थ्रिलर के लिए दर्शक की ऐसी प्रतिक्रिया ठीक नहीं। ऐसी फिल्मों की सफलता तब है, जब दर्शक उसके साथ शुरू से आखिर तक दम साध कर जुड़े रहे। उनके मन में बेचैनी हो, लेकिन फिल्म खत्म होने की नहीं, सिर्फ रहस्य जानने की।

बतौर निर्देशक कुशल श्रीवास्तव की यह पहली फिल्म है। वह कोई गहरा असर तो नहीं छोड़ते, लेकिन बहुत निराश भी नहीं करते। फिल्म के कई दृश्यों को देख कर लगता है कि पटकथा अच्छी मिले तो वह अच्छी फिल्म बना सकते हैं। इस फिल्म में भी उन्होंने कलाकार और लोकेशन तो अच्छे चुने ही हैं।

इस फिल्म का एक अच्छा पक्ष है अभिनय। निस्संदेह केके मेनन बेहतरीन अभिनेता हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपनी इस साख को कायम रखा है। फिल्म के मुख्य किरदार एसीपी अश्विनी दीक्षित के रूप में उनका काम जोरदार है। अपने किादार के हर पहलू को उन्होंने बहुत कुशलता से उभारा है। चाहे वह एक एसीपी का मगन होकर अपना काम करना हो, या अपनी पत्नी से प्यार दर्शाने के दृश्य हों या मानसिक बीमारी से पीड़ित एक व्यक्ति के भाव हों, हर सीन में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। लेकिन कमजोर पटकथा ने उनके अभिनय पर पानी फेर दिया। मंदिरा बेदी के सीन कम हैं, लेकिन उन्होंने भी ठीक काम किया है। हालांकि रोमांटिक सीन (जो वैसे भी इस फिल्म में बहुत कम है) में वह बहुत फिट नहीं लगतीं। शारिब हाशमी भी अच्छे अभिनेता हैं और यहां भी उन्होंने अपना काम अच्छा किया है। उनके लिए ज्यादा स्कोप नहीं था, क्योंकि उनके किरदार को निर्देशक उभार नहीं पाए हैं। फिर भी जितना मौका मिला, शारिब ने उससे न्याय किया। राइमा सेन भी ठीक हैं। इस फिल्म में सबसे ज्यादा उलझा हुआ किरदार उन्हीं का है। एक बात तो स्पष्ट है कि कहानी और पटकथा कमजोर हो तो अच्छे से अच्छे कलाकार भी कुछ नहीं कर पाते। हां, कमजोर स्क्रिप्ट वाली इस फिल्म के संवाद जरूर अच्छे हैं। खासकर आलोक श्रीवास्तव की लिखी कुछ अच्छी गजलें और और शायरी मंदिरा बेदी मोहक अंदाज में पढ़ती हैं।

फिल्म का एक और शानदार पक्ष है सिनमेटोग्राफी। मनीष चंद्रा ने मनाली के दिलकश लैंडस्केप को बहुत खूबसूरती से कैमरे में उतारा है। बर्फ से सफेद चोटियां और वादियां मन को लुभाती हैं। साथ ही, फिल्म जब एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाती है, तो उस ट्रांजिशन को भी थोड़ी गहराई देते हैं। फिल्म के अंत में आलोक श्रीवास्तव का लिखा और रेखा भारद्वाज व उस्ताद राशिद खान का गाया हुआ गाना ‘सखी रे’ अच्छा लगता है।

फिल्म थोड़ी सुस्त है, थोड़ी बिखरी-सी लगती है, लेकिन बुरी नहीं है। और हां, अगर केके मेनन के अभिनय के प्रशंसक हैं और जाड़े में मनाली की खूबसूरती अपने शहर में बैठ कर देखना चाहते हैं तो फिल्म देख सकते हैं।

(livehindustan.com में 19 जनवरी और हिन्दुस्तान में 20 जनवरी 2018 को प्रकाशित)

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