फिल्म ‘कारवां’ की समीक्षा

दिल से गुजरता है ये कारवां

राजीव रंजन

निर्देशक: आकर्ष खुराना

कलाकार: इरफान खान, डुलकर सलमान, मिथिला पालकर, कृति खरबंदा, आकाश खुराना, बीना, अमला

तीन स्टार (3 स्टार)

रोड ट्रिप और सफर पर कई फिल्में बॉलीवुड में बनी हैं, लेकिन ‘कारवां’ का मिजाज उन तमाम फिल्मों से अलग है। इस कारवां में वो गति और घटनाओं का तेज उतार-चढ़ाव नहीं है, जो अमूमन सड़क पर और सफर में घटने वाली फिल्मों में होता है। इसमें एक ठहराव है और वह ठहराव धीरे-धीरे दिल में उतर जाता है।


अविनाश (डुलकर सलमान) बेंगलुरु में एक आईटी कंपनी में काम करता है, लेकिन उसे अपना काम और बॉस पसंद नहीं है। वह फोटोग्राफर बनना चाहता था, पर पिता (आकाश खुराना) के दबाव के कारण उसे इस फील्ड में आना पड़ता है। अपनी इस अनचाही जिंदगी के लिए वह अपने पिता को दोषी मानता है। पिता-पुत्र में कोई संवाद नहीं होता। गंगोत्री जाते समय एक सड़क दुर्घटना में उसके पिता की मृत्यु हो जाती है। टूर ऑपरेटर कंपनी उसके पिता का पार्थिव शरीर बेंगलुरु भेजती है, पर उनका ताबूत एक बुजुर्ग महिला (बीना) के ताबूत से बदल कर कोच्चि पहुंच जाता है। अविनाश अपने पिता का शव लेने और बुजुर्ग महिला का शव उनकी बेटी को सौंपने के लिए कोच्चि जाता है। उसके साथ वैन का मालिक शौकत (इरफान) भी है। शौकत बेहद दिलचस्प इनसान है। रास्ते में अविनाश को तान्या (मिथिला पालकर) मिलती है, जो दिवंगत महिला की नातिन है। तीनों साथ मिल कर इस सफर में आगे बढ़ते हैं, जिसमें कुछ हिचकोले भी आते हैं और कुछ पुरानी यादों से मुलाकात भी होती है। इस सफर में अविनाश पिता के साथ अपने रिश्ते के नए पहलू से रूबरू होता है।


यह फिल्म उस यात्रा की तरह नहीं है, जिसमें आप एक जगह से किसी दूसरी जगह जल्दी से पहुंच जाने के लिए निकलते हैं। यह उस यात्रा की तरह है, जिसमें आप रास्ते में आने वाले खूबसूरत दृश्यों को मन भर निहारते हुए धीरे-धीरे अपने गंतव्य की ओर बढ़ते हैं। बिना किसी हड़बड़ी के, पूरे सुकून के साथ। निर्देशक आकर्ष खुराना ने एक साधारण-सी कहानी को बहुत खूबसूरती से बड़े पर्दे पर उतारा है। वह बतौर निर्देशक आकर्षित करते हैं। एक यात्रा के जरिये वह जीवन और रिश्तों की जटिलता, उनकी खूबसूरती को बहुत संजीदा अंदाज में पेश करते हैं। लेकिन इसका भी ध्यान रखते हैं कि फिल्म कहीं बोझिल और उपदेशात्मक न हो जाए। उसमें दर्शकों की रुचि बनी रहे। ऐसा लगता है, संतुलन बनाने के लिए ही उन्होंने शौकत के किरदार को गढ़ा है। और यह किरदार अपना काम बखूबी कर जाता है। दरअसल इरफान इतने सधे अभिनेता है कि किसी भी किरदार को ऊंचाई दे देते हैं। उनकी संवाद अदायगी और कॉमिक टाइमिंग इतनी शानदार होती है कि मजा आ जाता है। हालांकि इरफान के किरदार को लम्बा करने के लिए डाले गए कुछ दृश्य अनावश्यक लगते हैं, उनके बिना शायद काम चल सकता था।


डुलकर सलमान अपने अभिनय से चकित कर देते हैं। उन्होंने शानदार अभिनय किया है और अपने किरदार को जीवंत कर दिया है। वह अपनी पहली ही हिन्दी फिल्म में जबर्दस्त छाप छोड़ते हैं। और हां, दक्षिण के ज्यादातर अभिनेताओं के मुकाबले उनकी हिंदी बहुत अच्छी है। एक टीनेजर की भूमिका में मिथिला पालकर भी छाप छोड़ती हैं। उनके किरदार में शहरी भारत की नई पीढ़ी की झलक मिलती है। अपने किरदार के साथ वह पूरी तरह न्याय करती हैं। अमला की भूमिका छोटी है, लेकिन प्रभावित करने वाली है। कृति खरबंदा अतिथि भूमिका में हैं। उनके पास गिने-चुने शॉट और संवाद हैं, लेकिन उनका किरदार प्यारा लगता है। बाकी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म की सिनमेटोग्राफी बहुत बढ़िया है। सिनमेटोग्राफर अविनाश अरुण ने कारवां के मार्ग में पड़ने वाली प्राकृतिक दृश्यों को खूबसूरती से कैमरे में दर्ज किया है।

यह फिल्म सुबह की उस चाय जैसी है, जिसकी भीनी महक से नींद की खुमारी टूटती है और दिन की शुरुआत होती है, जो अपने साथ ढेरों संभावनाएं लेकर आता है। यह एक मीठी-सी फिल्म है, जिसकी मिठास देर तक जुबान पर ठहरी रहती है। आप सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हैं, तो कुछ दूर तक ये ‘कारवां’ भी आपके साथ चलता है।

(3 अगस्त को livehindustan.com में और 4 अगस्त को "हिन्दुस्तान" में सम्पादित अंश प्रकाशित)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वीणा-वादिनी वर दे

सेठ गोविंद दास: हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के बड़े पैरोकार

राही मासूम रजा की कविता 'वसीयत'