मोहल्ला अस्सी की समीक्षा

अपने समय और समाज का बयां

राजीव रंजन

कलाकार: सन्नी देओल, साक्षी तंवर, रवि किशन, सौरभ शुक्ला, फैसल रशीद, मिथिलेश चतुर्वेदी, राजेंद्र गुप्ता, मुकेश तिवारी, सीमा आजमी, अखिलेंद्र मिश्रा, 

निर्देशक: डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

ढाई स्टार (2.5 स्टार)

सन् 1980 के दशक के आखिरी वर्षों और 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में भारत तीन बड़ी घटनाओं- मंडलीकरण, कमंडलीकरण और भूमंडलीकरण का गवाह बना। इन युगांतरकारी घटनाओं ने भारतीय समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाला। अपनी परम्पराओं पर प्राण देने वाली महादेव की नगरी काशी भी इससे अछूती नहीं रही। प्रसिद्ध साहित्यकार काशीनाथ सिंह की किताब ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ इसी दौर पर एक टिप्पणी है। विवादों में फंसी यह फिल्म कई वर्षों से रिलीज का इंतजार कर रही थी, आखिरकार यह सिनेमाघरों में आ गई। इससे निर्माता-निर्देशक को निश्चित रूप से कुछ राहत मिली होगी।
यह फिल्म राजनीति व बाजारीकरण के प्रभावों से समाज, मूल्यों और परम्पराओं में पैदा हुई हलचल को बयां करती है। अस्सी मोहल्ले में स्थित पप्पू की चाय दुकान, अस्सी में पंडितों का मुहल्ला और वहां के घाट इस द्वंद्व के चित्रण का मंच है। इस मुहल्ले में जहां मंडल और कमंडल ने सामाजिक समीकरणों में हलचल पैदा की, तो बाजारवाद ने मूल्यों और परम्पराओं को निशाना बनाया। ‘मोहल्ला अस्सी’ जहां एक ओर उस दौर में बदलते राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य की बात करती है, तो दूसरी ओर धर्म, परम्परा, अतीत व वर्तमान के द्वंद्व में फंसे अस्सी के पंडितों की भी के मनोभावों को चित्रित करती है। कुछ लोग हैं, जो बाजारीकरण से पैदा अवसरों को भुना रहे हैं, तो कुछ परम्पराओं पर अडिग हैं। कुछ लोग जरूरतों के लिए मूल्यों को किनारे कर देते हैं, तो कुछ लोग उसके लिए दिक्कतें सहने को भी तैयार हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो भौतिकता के लिए परम्पराओं को छोड़ने को तैयार हैं, लेकिन लोकलाज की वजह से डनहें छोड़ने में डरते हैं। जैसे ही उन्हें बहाना मिलता है, वे पहली जमात के लोगों में शामिल हो जाते हैं। पंडित धर्मनाथ पांडेय (सन्नी देओल) एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो किसी भी कीमत पर अपनी परम्परा को छोड़ना नहीं चाहते। उनकी पत्नी सावित्री (साक्षी तंवर) उन्हें बीच का रास्ता अपनाने को कहती है, लेकिन वे अपनी जिद से पीछे नहीं हटते।
धर्मनाथ अस्सी मोहल्ले में अपनी पत्नी सावित्री, बेटे और बेटी के साथ रहते हैं। अध्यापन और पुरोहिताई उनका पैतृक काम है। वे आधुनिकता को अस्वीकार कर अपने पुश्तैनी काम से चिपके हुए हैं। वे जितना है, उसी में संतोष करने के कायल है। पौराणिक पात्र नचिकेता उनका आदर्श है। उधर कन्नी (रवि किशन) समय की नब्ज पकड़ने वाला व्यक्ति है और खुले बाजार से पैदा हुए अवसरों को लपकने के लिए हमेशा तैयार रहता है। वह बनारस आने वाले विदेशियों के लिए अस्सी में रहने की व्यवस्था करने का काम करता है और पैसा बनाता है। वह विदेशियों के लिए टूरिस्ट गाइड भी है, प्रॉपर्टी डीलर भी है और उनके लिए दूसरे इंतजाम करने वाला भी। उसके सहयोगी हैं नेकराम नाई (फैसल रशीद) और लोगों को गंगा की सैर कराने वाला एक मल्लाह। कन्नी एक अमेरिकी महिला कैथरीन (आलीशा) को अस्सी में पंडितों के मोहल्ले में मकान दिलवाना चाहता है। धर्मनाथ के पड़ोसी उपाध्याय जी (सौरभ शुक्ला) और दूसरे पंडित उसे अपने मकान में रखना चाहते, लेकिन धर्मनाथ के डर की वजह से नहीं रख पाते। कन्नी अंतत: कैथरीन को मल्लाह के घर में पेइंग गेस्ट के रूप में रखवा देता है। मल्लाह की पत्नी रामदेई (सीमा आजमी) को यह पसंद नहीं है, लेकिन पैसे की खातिर वह इसे बर्दाश्त कर लेती है।
इधर पप्पू की दुकान पर रोज अस्सी निवासियों की महफिल जुटती है। इस महफिल में एक कॉलेज के प्राचार्य गया सिंह (मिथिलेश चतुर्वेदी), वकील श्रीवास्तव (राजेंद्र गुप्ता), दक्षिणपंक्षी नेता राधेश्याम (मुकेश तिवारी), तन्नी गुरु (अखिलेंद्र मिश्रा) और कई दूसरे लोग शामिल हैं। ये मानते हैं कि देश में संसद दो ही जगह लगती है, एक देश की राजधानी दिल्ली और दूसरी अस्सी में पप्पू की चाय दुकान पर। ये सब यहां बैठ कर देश-दुनिया, धर्म, राजनीति, समाज, संस्कृति पर बहसें करते रहते हैं। (ऐसी चाय-पान की दुकानें आपको देश के अनेक शहरों में मिल जाएंगी) श्रीवास्तव जी का मानना है कि राम मंदिर आंदोलन वोट बैंक का एक मुद्दा है, लेकिन राधेश्याम के अनुसार ये आस्था का मामला है। कन्नी के अनुसार, विदेशी भारतीय धर्म-संस्कृति में रुचि की वजह से बनारस आते हैं, तो गया सिंह का मानना है कि चरस-गांजा की आसानी से उपलब्धता और कम पैसे में मालिकाना रौब के साथ जीवन जीने के लिए वे भारत के ऐसे शहरों का रुख करते हैं।...

धर्मनाथ पांडे की निजी जीवन की कशमकश को छोड़ दें तो, दरअसल इस फिल्म में एक सुसंगत कहानी जैसी कोई बात नहीं है। मूल रूप से यह एक मुहल्ले की बैठकबाजी का फिल्मीकरण है। परम्परा और वर्तमान के द्वंद्व में फंसे एक प्राचीन धार्मिक शहर के निवासियों की उम्मीदों, आशंकाओं का चित्रण है। इस फिल्म में कई रोचक दृश्य हैं, तो कुछ दृश्य बेवजह भी लगते हैं। पटकथा थोड़ी बिखरी-बिखरी सी लगती है, उसमें कसाव नहीं होने की वजह से फिल्म वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाती, जिसकी उम्मीद चंद्रपकाश द्विवेदी जैसे निर्देशक से की जाती है। यह फिल्म अपनी बात को घटनाओं के माध्यम से कम और संवादों के माध्यम से ज्यादा कहती है। कई बार उन जगहों पर भी संवाद हैं, जहां जरूरत नहीं थी। उदाहरण के लिए, जब धर्मनाथ को शिवजी सपना देते हैं कि वह उन्हें उस जगह से आजाद करे, जहां उन्हें स्थापित किया हुआ है, तो इसके बाद अस्सी के सारे पंडितों को ऐसे ही सपने आने लगते हैं। यह सब देख पार्वती अपने पति से कहती है कि किसी को कोई सपना नहीं आया है। यह बात दृश्य खुद बहुत स्पष्टता से बयां करता है। पार्वती को इसे बताने की जरूरत नहीं थी। शायद निर्देशक को दर्शकों की समझ पर भरोसा नहीं था या उन्होंने तय कर लिया था कि हर बात को संवादों के जरिये ही बताएंगे। फिल्म में रोचकता है, यह बांधे रखती है। कन्नी जब भी पर्दे पर आता है, फिल्म में रुचि जगाता है। नेकराम का किरदार भी अच्छा गढ़ा गया है। नेकराम नाई के बार्बर बाबा बनने का प्रसंग योग और अध्यात्म के बाजार का किस्सा बयां करता है। पप्पू की चाय दुकान की बैठकबाजी के दृश्य भी रोचक हैं, लेकिन कई बार भाषणबाजी का पुट आ जाता है।
फिल्म यह दिखाने में सफल रही है कि जब आप बाजार की चपेट में आते हैं, तो यह आपके व्यक्तित्व में कमोरी पैदा करता है। जब धर्मनाथ अपने सिद्धांतों पर अडिग रहता है तो कन्नी के प्रति उसका रवैया अलग होता है और जब वह अपनी जररूतों के सामने पिघलता है, तो कन्नी के प्रति उसका व्यवहार कुछ और हो जाता है। फिल्म कुछ और बातें कहने का भी प्रयास करती है। इसमें संस्कृत पढ़ने वालों की दुर्दशा, उनकी अप्रासंगिकता; समय के साथ न चलने वालों के जीवन में पिछड़ जाने जैसी बातें हैं। फिल्म यह भी संदेश देने की कोशिश करती है कि जिंदगी अपना रास्ता बना लेती है, बशर्ते हालात से निराश न हुआ जाए तो। फिल्म में कुछ बड़ी खामियां भी हैं। इसका कालखंड 1988 से 1998 तक का है, लेकिन लगता है कि इसके किरदारों की उम्र ठिठक गई है। एक दशक में उनमें कोई परिवर्तन नहीं आता। पंडित धर्मनाथ का बेटा जितना है, उतना ही बड़ा दिखता है।

कलाकारों में सन्नी देओल ने अपनी छवि के उलट किरदार में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। उनका अभिनय पात्र के अनुकूल है, पर उनके लहजे में बनारसीपने का अभाव है। सन्नी देओल की पत्नी सावित्री के रूप में साक्षी तंवर का अभिनय बढ़िया है। वह अपने किरदार की सारी परतों को उभारने में कामयाब रही हैं। रवि किशन सबसे अधिक जमे हैं। कन्नी गुरु के किरदार में वे कमाल के लगे हैं और चूंकि वे पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं, इसलिए उनका लहजा भी बनारसी लगता है। फैसल रशीद भी बार्बर बाबा की भूमिका में प्रभाव छोड़ते हैं। सौरभ शुक्ला अपने परिचित अंदाज में हैं। गया सिह की भूमिका में मिथिलेश चतुर्वेदी भी अच्छे हैं। रामदेई के किरदार को सीमा आजमी ने रोचकता के साथ निभाया है। मुकेश तिवारी, राजेंद्र गुप्ता, अखिलेंद्र मिश्रा भी ठीक हैं। भगवान शिव का वेश धारण कर घाट पर घूमने वाले बहुरूपिये के रूप में दयाशंकर का अभिनय किरदार छोटा होने के बावजूद रोचक है। एस पी मिश्रा का किरदार निभाने वाले अभिनेता भी अपने किरदार के न्याय करने में सफल रहे हैं। विदशी महिला कैथरीन के रूप में अलीशा ठीक हैं। मेडेलिन के किरदार में सोफिया भी ठीक हैं, हालांकि उनका रोल छोटा है।
काशीनाथ सिंह और चंद्रकाश द्विवेदी के संवाद चुटीले हैं और प्रभाव छोड़ते हैं। हालांकि इसमें गालियों की भरमार है। मूल पुस्तक में भी भरपूर गालियां हैं, लेकिन फिल्म में इनसे आसानी से बचा सकता था। लेखक ने राजनीतिक प्रसंगों में राजनीतिक दलों का बेहिचक नाम लिया है और उन पर सवाल उठाने में कोई संकोच नहीं किया है। इस मामले में उन्होंने संतुलित दिखने की कोशिश भी की है, लेकिन कई जगह वैचारिक आग्रह दिख जाता है। फिल्म की एडिटिंग कमजोर है। इससे फिल्म प्रभावित हुई है। इसका प्रिंट भी पहले ही लीक हो चुका है, इससे भी फिल्म को नुकसान हुआ है। सिनमेटोग्राफी ठीक है और कैमरा बनारस की झलक दिखाता है। गीत-संगीत प्रभावित नहीं करता। निर्देशक चंद्रप्रकाश काशी के माहौल को रचने और अपनी बात को कहने में सफल रहे हैं, लेकिन इस बार उनमें ‘पिंजर’ वाली गहराई नजर नहीं आती। कुल मिलाकर फिल्म में कुछ खूबियां हैं, तो कुछ खामियां भी हैं, लेकिन मुकम्मल तौर पर यह फिल्म प्रभाव छोड़ती है और देखी जाने लायक है।
(16 नवंबर को livehindustan.com और 17 नवंबर को हिन्दुस्तान में संक्षिप्त अंश प्रकाशित)

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